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Re Kabira 054 - इतनी जल्दी थी

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--o Re Kabira 054 o-- इतनी जल्दी थी जाने की इतनी जल्दी थी सीधे ख़ुदा से क्यों बात कर ली, जिस तरह चले गए ऐसी कोई भी बात इतनी बड़ी थी भली।  इतनी तेज भागते रहे की साँस लेने फ़ुरसत मिली ही नहीं, न तुमने देखा न तुमको देखा कब कदम थम गए बस वहीं।  चिल्लाए तो बहुत पर आवाज़ पलट कर आयी ही नहीं, हज़ारों दोस्त हैं पर एक को भी तकलीफ़ दिखाई दी नहीं।  सारे दोस्त मुज़रिम हैं क्यों कल उससे बात नहीं कर ली, जाने की इतनी जल्दी थी सीधे ख़ुदा से क्यों बात कर ली। आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira He couldn’t find someone to talk only option was to meet God. All the friends are now feeling guilty why they didn’t speak with him yesterday. #MentalHealthMatters #RIPSSR  #JustTalk --o Re Kabira 054 o--

Re Kabira 053 - बाग़ीचे की वो मेज़

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--o Re Kabira 053 o-- बाग़ीचे की वो मेज़ बाग़ीचे की उस मेज़ पर हमेशा कोई बैठा मिला है यहीं तो मेरी मुलाक़ात एक दिन उम्मीद से होने वाली है अलग-अलग चेहरों को मुस्कुराते हुए देखा है कभी सुकून से  सुस्साते और कभी ज़िन्दगी से थके  देखा है बुज़ूर्ग आँखों को बहुत दूर कुछ निहारते देखा है कभी ढलते सूरज में और कभी सितारों में खोया देखा है  बच्चों को वहां पर खिलखिलाते हुये देखा है  कभी झगड़ते हुए और कभी खुसफुसाते हुए देखा है  जवाँ जोड़ों को भी गुफ़्तुगू में खोये हुए देखा है  कभी हैरान परेशान और कभी शाम का लुफ़्त लेते देखा है   अक्सर कोई तन्हाई के कुछ पल ढूंढ़ता दिखा है  कभी आप में खोया सा और कभी सोच में डूबा दिखा है  ज़नाब कोई खुदा से हिसाब माँगते भी दिखा है कभी अपना हिस्सा लिए  और  कभी  अपने टुकड़े के लिए लड़ते दिखा है  बड़ी मुद्दत के बाद बाग़ीचे की वो मेज़ खाली है यहीं तो मेरी मुलाक़ात आज उम्मीद से होने वाली है आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira --o Re Kabira 053 o--

Re Kabira 052 - सोचो तो सही

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--o Re Kabira 052 o-- सोचो तो सही कहाँ से आ रही थी गुलाबों की वो महक बगीचे में कल? थे खिले वो पिछले बरस भी, खड़े तुम कभी हुए नहीं फ़ुरसत से एक पल  कहाँ से आ गए सड़क के उस पार वो दरख़्त वहां पर? था तो वो वहाँ पहले भी, गुम  तुम  थे इतने दिखे बस घड़ी के काँटे कलाई पर कहाँ से दिखाई देने लगे तारे आसमान में आजकल?  थे चमकते वो हर रात भी, तुमने काफी दिनों से की नहीं टहलने की पहल  कहाँ से सुनाई देने लगे वो गाने जो गुनगुनाते थे तुम कभी-कभी? है बजते वो गाने अब भी .. और गाते हो अब भी, तुम मसरूफ़ थे शोर में इतना की लुफ्त लिया ही नहीं कहाँ चली गई वो किताब जो तुमने खरीदी थी कुछ अरसे पहले ही?  है किताब उसी मेज पर अब भी, तुमने दबा दी रद्दी के ढेर में बस यूँ ही  कहाँ ख़त्म हो गई कहानी जो तुमने सुनाई थी बच्चों को आधी अधूरी ही? हैं बच्चे इंतज़ार में अब भी, तुम ही मशगुल थे कहीं और कहानी तो रुकी है वहीँ  कहाँ से आ गयी शिकायतें घर पर अब हर रोज़ नयी-नयी?  थे शिके-गिल्वे हमेशा  से  वही, तुमने बड़े दिनों के बाद ध्यान दिया है उन पर सही  कहाँ से आने लगी ख़ुश्बू मसाल

Re Kabira 051 - अक्स

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--o Re Kabira 051 o-- अक्स कभी मेरे आगे दिखती हो, कभी मेरे पीछे चलती हो कभी साथ खड़ी नज़र आती हो, कभी मुझ में समा जाती हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी परछाई तो नहीं हो? कभी सुबह की धुप में हो , कभी दोपहर की गर्मी में हो  कभी शाम की ठंडी छावं में हो , कभी रात की चाँदनी में हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी अंगड़ाई तो नहीं हो? कभी मेरी घबराहट में हो, कभी मेरी मुस्कुराहट में हो कभी मेरी चिल्लाहट में हो, कभी मेरी ह्रडभडाहट में हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी सच्चाई तो नहीं हो? कभी मेरी कहानी में हो, कभी मेरी सोच में हो कभी मेरे सपनों में हो, कभी मेरे सामने खड़ी हुई हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी आरज़ू तो नहीं हो? कभी पंछी चहके तो तुम हो, कभी बहते झरनों में तुम हो कभी हवा पेड़ छू के निकले तो तुम हो, कभी लहरें रेत टटोलें तो तुम हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी ख़ामोशी तो नहीं हो? कभी कबीर के दोहो में हो, कभी ग़ालिब के शेरों में हो कभी मीरा के भजन में हो, कभी गुलज़ार के गीतों में हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी आवा

Re Kabira 050 - मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं

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-o Re Kabira 050 o-- मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ सुनने के लिए कुछ सुनाने लिए, कुछ समझने के लिए कुछ समझाने के लिए कुछ बार-बार रूठने के लिए कुछ बार-बार मनाने के लिए कुछ बार-बार मिलने के लिए कुछ बार-बार बिछड़ जाने के लिए मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ पीठ दिखाने के लिए कुछ पीठ पर आघात से बचाने के लिए कुछ झूठ बोलने के लिए कुछ सच छुपाने के लिए कुछ दूर खड़े रहने के लिए कुछ दूर खड़े रहने का यक़ीन दिलाने के लिए कुछ भरोसा करने के लिए कुछ का विस्वास बन जाने के लिए मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ चापलूसी करने के लिए कुछ हौसला बढ़ाने के लिए कुछ तालियाँ बजाने के लिए कुछ सच्चाई बताने के लिए कुछ गलितयाँ करवाने के लिए कुछ गलितयों में साथ निभाने के लिए कुछ गलतियों को कारनामा बताने के लिए कुछ गलितयों का अहसास दिलाने के लिए मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ राह दिखाने के लिए कुछ को रास्ता दिखाने के लिए  कुछ धकेलने के लिए कुछ खींच ले जाने के लिए कुछ साथ हँसने के लिए कुछ साथ आँसू बहाने के लिए कुछ साथ चलने के लिए कुछ पास

Re Kabira 049 - होली 2020

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-o Re Kabira 049 o-- हर्ष और उमंग न रोक सके कोई शिकवे-मलाल, बस आज हो सबके चेहरे पर लाल गुलाल ।  न टोक सके कोई मस्ती-धमाल, बस आज हों सब लोट कीचड़ में बेहाल ।।  न रोक सके कोई आलस-बहाने, बस आज सब निकले रंगो में नाहने ।  न टोक सके कोई हिंदू-मुस्लमान, बस आज सब  लग जाए मिलने मानाने ।।  न रोक सके कोई राजा-रंक, बस आज बिखर जाने दो.. निखर जाने दो सत-रंग ।  न टोक सके कोई खेल-अतरंग, बस आज हो सब के मन में उमंग.. बस हर्ष और उमंग ।। ..... होली पर आप सब को बहुत सारी शुभकामनायें  .... Wishing you all a very Happy Holi *** आशुतोष झुड़ेले  *** -o Re Kabira 049 o--

Re Kabira 048 - डोर

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-o Re Kabira 048 o-- डोर जब पानी मुट्ठी से सरक जावे, केबल हतेली गीली रह जावे। निकल गयो वकत बापस नहीं आवे, तेरे हाथ अफसोस ठय जावे।। ज़िन्दगी मानो तो बहुत छोटी होवे, और मानो तो बहुतै लंबी हो जावे।   सोच संकोच में लोग आगे बड़ जावे, तोहे पास पीड़ा दरद धर जावे।। जब-तब याद किसी की आवे, तो उनकी-तुम्हारी उमर और बड़ जावे।  चाहे जो भी विचार मन में आवे, बिना समय गवाये मिलने चले जावे।।   डोर लम्बी होवे तो छोर नजर न आवे,  और  जब  समटे तो उलझ बो जावे।  बोले रे कबीरा नाजुक रिस्ते-धागे होवे, झटक से जे टूट भी  जावे।। *** आशुतोष झुड़ेले  *** -o Re Kabira 048 o--