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Re Kabira 0066 - स्याही की व्यथा

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--o Re Kabira 066 o-- स्याही की व्यथा स्याही ही हूँ, लिखती हूँ ख़बर कभी ख़ुशी की और कभी ग़म की लिखती हूँ चिट्ठी कभी इंतेज़ार की और कभी इज़्हार की लिखती हूँ कहानी कभी कल्पना की और कभी हक़ीक़त की स्याही ही हूँ, लिखती हूँ परीक्षा कभी जीवनी के लिए और कभी जीवन के लिए लिखती हूँ कविता कभी दर्द छुपाने के लिए और कभी दिखाने के लिए लिखती हूँ कटाच्छ कभी झंझोलने के लिए और कभी सोचने के लिए स्याही ही हूँ, लिखती हूँ भजन भगवान् को बुलाने के और कभी भगवान् के समीप जाने के लिखती हूँ फरमान कभी आज़ादी के और कभी गुलामी के लिखती हूँ पैगाम कभी समझातों के और कभी साज़िशों के स्याही ही हूँ, लिखती हूँ यादें कभी याद करने के लिए और कभी भूल जाने के लिए लिखती हूँ चुटकुले-व्यंग हॅसने के लिए और हँसाने लिए लिखती हूँ कथा-आत्मकथा कभी महापुरषों के लिए और कभी दुष्टोँ  के लिए स्याही ही हूँ, लिखती हूँ शिकायतें कभी बदलाव के लिए और कभी न बदलने के लिए लिखती हूँ गाथाएँ कभी इतिहास बतलाने के लिए और कभी बहकाने के लिए  लिखती हूँ संविधान कभी राष्ट्र बनाने के लिए और कभी बटवाने के लिए स्याही ही हूँ, लिखती हूँ रंगों में कभी बस रंग मत समझ लेना लिखत

Re Kabira 065 - वो कुल्फी वाला

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--o Re Kabira 065 o-- वो कुल्फी वाला  जैसे कल ही की बात हो, जब सुनते थे हम घंटी वो, भागे चले आते ले जो पैसे हों, दूध-मलाई-केसर-पिस्ता कुल्फी ले लो, घेर लेते थे ठेला दिखलाते चवन्नी उसको, लड़ते थे सबसे पहले अपनी बारी को, कभी गिर जाती थी कुल्फी टूट,  दे देता था दूसरी बोल बेटा उदास मत हो  आँखों में चमक, मुँह में पानी अब भी आता चाहे हाथ में कुल्फी हो-न-हो, बचपन की शरारतें वापस आ जाती,  देख लाल कपड़े में लिपटे मटके को  न जाने कहाँ चला गया ठंडी कुल्फी वाला वो, वो कुल्फी वाला, याद दिलाता बचपन कुल्फी वाला वो, वो कुल्फी वाला... आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley --o Re Kabira 065 o--

Re Kabira 064 - कुछ सवाल?

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--o Re Kabira 064 o-- कुछ सवाल? खुशियां समिट गयीं, आशाएँ बिखर गयीं कुछ तो ढूंढ रहा है बंदा? रिश्ते अटक गए, नाते चटक गए कुछ न समझे है ये बाशिंदा? उसूल लुट गए, सुविचार मिट गए  क्यों नहीं हो रही निंदा? झूठ जीत गया, सच बदल गया क्यों नहीं हैं हम शर्मिंदा? दुआयें गुम गयीं, आशीर्वाद कम गया किसे पुकारे अब नालंदा? बहुत तप हो गए, रोज़ व्रत हो गए किसे भक्ति दिखाये रे काबिरा, रे गोविंदा? सुकून चला गया, चैन न रह गया कैसे हैं लोग यूँ ज़िंदा? लालच बस गयी, तृष्णा रह गयी कैसे निकालोगे ये फंदा? शहर बस गए, गांव घट गए कहाँ बनेगा मेरा घरौंदा? ख़्वाब रह गए, सपने बह गए कहाँ भटक रहा परिंदा? आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley --o Re Kabira 064 o--

Re Kabira 0063 - ये घड़ी और वो घड़ी

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  --o Re Kabira 063 o-- ये घड़ी, और वो घड़ी   दीवार पर एक घड़ी, कलाई पर दूसरी घड़ी घर के हर कमरे में अड़ी है एक घड़ी  रोज़ सुबह जगाती, इंतेज़ार कराती है घड़ी  कुछ सस्ती, कुछ महँगी, गहना भी बन जाती है घड़ी  इठलाती, नखरे दिखाती, हमेशा टिक-टिकाती है घड़ी  कुछ धीरे चलती, कुछ तेज़ चलती है घड़ी  कभी रुक जाती है, पर समय ज़रूर बताती है घड़ी, कुछ अजब ही जुड़ी है मुझसे ये घड़ी, और वो घड़ी सुख़ की, दुःख की, ख़ुशियों की भी होती है घड़ी  परेशानियाँ भी आती हैं घड़ी-घड़ी तेज चले तो इंतेहाँ की, धीरे चले तो इंतज़ार की है घड़ी  दौड़े तो दिल की, थक जाओ तो सुस्ताने की है घड़ी  बच्चों के खेलने जाने की घडी, बूढ़ी आखों के लिए प्रतीक्षा की घड़ी  जीत की, हार की, भागने की, सम्भलने की घड़ी  यादों की, कहानियों की, किस्सों की, गानो की भी होती है घड़ी  कुछ अजब ही जुड़ी है मुझसे ये घड़ी, और वो घड़ी किसी के आने की घड़ी, किसी के जाने की घड़ी  किसी न किसी बहाने की भी होती है घड़ी  कोई चाहे धीमी हो जाये ये घड़ी, रुक जाए ये घड़ी कोई चाहे बस किसी तरह निकल जाये ये घड़ी  कभी फैसले की घड़ी, तो कभी परखने की घड़ी  कभी हक़ीकत की घड़ी, तो कभी यकीन की घड़ी कभी व्यस्त होती घ

Re Kabira 0062 - पतझड़ के भी रंग होते हैं

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--o Re Kabira 062 o--  पतझड़ के भी रंग होते हैं  शहर की भीड़ में भी कुछ कोने अकेले बैठने के होते हैं सीधी सड़कों से भी कुछ आड़े-तिरछे रास्ते जुड़े होते हैं आधी-अँधेरी रात में भी हज़ारों तारे जगमगाते रहते हैं लाल-पीले पत्तों में ही सही पतझड़ के भी रंग होते हैं धूल भरी किताबों में भी कुछ पन्ने हमेशा याद होते है धीमे क़दमों की आहट में भी शरारती छल होते हैं पुराने गानों की धुन में भी कुछ किस्से जुड़े होते हैं बाग़ीचे में गिरे फूलों में  ही  सही पतझड़ के भी रंग होते हैं तुम्हारी मुस्कुराहट में कुछ गहरे राज़ छुपे होते है तुम्हारी झुंझलाहट में भी कुछ मोह्ब्हत के पल होते हैं और जब तुम फुसलाते हो तो भी कुछ अरमान होते हैं ठंडी-सुखी हवा के झोंकों में  ही   सही पतझड़ के भी रंग होते हैं सपने तो देखते हैं सभी कुछ खुली आँखों से साकार होते हैं नशे में तो झूमते है हम भी कुछ बिना मय भी मदहोश होते हैं भागते-दौड़ते परेशान है सभी कुछ पसीने में ही ख़ुश होते हैं गीली माटी में ही सही पतझड़ के भी रंग होते हैं आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley --o Re Kabira 062 o--

Re Kabira 0061 - हिसाब-किताब नहीं होना चाहिए

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--o Re Kabira 061 o--   हिसाब-किताब नहीं होना चाहिए यादें होनी चाहिए, बातें होनी चाहिए, बातों में कुछ राज़ छुपे होना चाहिए, कुछ किस्से होना चाहिए, कुछ कहानियाँ होनी चाहिए, दोस्तों में बस झूठ नहीं होना चाहिए छेड़कानी होनी चाहिए, बदतमीज़ी होनी चाहिए, बदतमीज़ी में कुछ हँसी मज़ाक होना चाहिए, कुछ इशारे होना चाहिए,  कुछ बातें इशारों में होना चाहिए, दोस्तों में बस फ़रेब नहीं होना चाहिए मिलने का बहाना होना चाहिए, मुलाकातों की ललक होनी चाहिए  रोज़ महफ़िल में पीना-पिलाना होना चाहिए, कुछ हँसना चाहिए,  कुछ रोना चाहिए, दोस्तों में बस इस्तेमाल नहीं होना चाहिए झगडे होना चाहिए, लड़ाई होनी चाहिए, हाथापाई में ग़लतफ़हमी दूर होनी चाहिए, कुछ नोक-झोंक होना चाहिए, कुछ गाली-गलोच होना चाहिए, दोस्तों में बस इल्ज़ाम नहीं होना चाहिए ख़्वाब होना चाहिए, खाव्हिशें होनी चाहिए, ख़्वाबों में खाव्हिशें होनी चाहिए, कुछ सपने होना चाहिए, कुछ हक़ीक़त होनी चाहिए, दोस्तों में बस हिसाब-किताब नहीं होना चाहिए आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley --o Re Kabira 061 o--

Re Kabira 060 - अभी तक कोई सोया नहीं

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--o Re Kabira 060 o--   अभी तक कोई सोया नहीं  सामने वाले घर में आज भी, अभी तक कोई सोया नहीं  या तो वो गुम है क़िताबों में - अख़बारों में, या फिर खोया हुआ है ख़यालों में  या तो वो हक़ीक़त से है अनजान, या फिर है बहुत परेशान  या तो वो है बिल्कुल अकेला, या फिर जमा हुआ है दोस्तों का मेला  सामने वाले घर में आज भी, अभी तक कोई सोया नहीं  या तो वो है किसी से डरा हुआ, या फिर है हाथ में प्याला भरा हुआ  या तो वो है किसी के इख़्तेयार में, या है किसी के इंतज़ार में  या तो वह है बहुत ही थका हुआ, या चाह कर भी सो न सका  सामने वाले घर में आज भी, अभी तक कोई सोया नहीं  में भी तो अब तक सोया नहीं, नींद का कोई पता नहीं  आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley --o Re Kabira 060 o--