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Re Kabira 0062 - पतझड़ के भी रंग होते हैं

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--o Re Kabira 062 o--  पतझड़ के भी रंग होते हैं  शहर की भीड़ में भी कुछ कोने अकेले बैठने के होते हैं सीधी सड़कों से भी कुछ आड़े-तिरछे रास्ते जुड़े होते हैं आधी-अँधेरी रात में भी हज़ारों तारे जगमगाते रहते हैं लाल-पीले पत्तों में ही सही पतझड़ के भी रंग होते हैं धूल भरी किताबों में भी कुछ पन्ने हमेशा याद होते है धीमे क़दमों की आहट में भी शरारती छल होते हैं पुराने गानों की धुन में भी कुछ किस्से जुड़े होते हैं बाग़ीचे में गिरे फूलों में  ही  सही पतझड़ के भी रंग होते हैं तुम्हारी मुस्कुराहट में कुछ गहरे राज़ छुपे होते है तुम्हारी झुंझलाहट में भी कुछ मोह्ब्हत के पल होते हैं और जब तुम फुसलाते हो तो भी कुछ अरमान होते हैं ठंडी-सुखी हवा के झोंकों में  ही   सही पतझड़ के भी रंग होते हैं सपने तो देखते हैं सभी कुछ खुली आँखों से साकार होते हैं नशे में तो झूमते है हम भी कुछ बिना मय भी मदहोश होते हैं भागते-दौड़ते परेशान है सभी कुछ पसीने में ही ख़ुश होते हैं गीली माटी में ही सही पतझड़ के भी रंग होते हैं आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley --o Re Kabira 062 o--

Re Kabira 0061 - हिसाब-किताब नहीं होना चाहिए

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--o Re Kabira 061 o--   हिसाब-किताब नहीं होना चाहिए यादें होनी चाहिए, बातें होनी चाहिए, बातों में कुछ राज़ छुपे होना चाहिए, कुछ किस्से होना चाहिए, कुछ कहानियाँ होनी चाहिए, दोस्तों में बस झूठ नहीं होना चाहिए छेड़कानी होनी चाहिए, बदतमीज़ी होनी चाहिए, बदतमीज़ी में कुछ हँसी मज़ाक होना चाहिए, कुछ इशारे होना चाहिए,  कुछ बातें इशारों में होना चाहिए, दोस्तों में बस फ़रेब नहीं होना चाहिए मिलने का बहाना होना चाहिए, मुलाकातों की ललक होनी चाहिए  रोज़ महफ़िल में पीना-पिलाना होना चाहिए, कुछ हँसना चाहिए,  कुछ रोना चाहिए, दोस्तों में बस इस्तेमाल नहीं होना चाहिए झगडे होना चाहिए, लड़ाई होनी चाहिए, हाथापाई में ग़लतफ़हमी दूर होनी चाहिए, कुछ नोक-झोंक होना चाहिए, कुछ गाली-गलोच होना चाहिए, दोस्तों में बस इल्ज़ाम नहीं होना चाहिए ख़्वाब होना चाहिए, खाव्हिशें होनी चाहिए, ख़्वाबों में खाव्हिशें होनी चाहिए, कुछ सपने होना चाहिए, कुछ हक़ीक़त होनी चाहिए, दोस्तों में बस हिसाब-किताब नहीं होना चाहिए आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley --o Re Kabira 061 o--

Re Kabira 060 - अभी तक कोई सोया नहीं

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--o Re Kabira 060 o--   अभी तक कोई सोया नहीं  सामने वाले घर में आज भी, अभी तक कोई सोया नहीं  या तो वो गुम है क़िताबों में - अख़बारों में, या फिर खोया हुआ है ख़यालों में  या तो वो हक़ीक़त से है अनजान, या फिर है बहुत परेशान  या तो वो है बिल्कुल अकेला, या फिर जमा हुआ है दोस्तों का मेला  सामने वाले घर में आज भी, अभी तक कोई सोया नहीं  या तो वो है किसी से डरा हुआ, या फिर है हाथ में प्याला भरा हुआ  या तो वो है किसी के इख़्तेयार में, या है किसी के इंतज़ार में  या तो वह है बहुत ही थका हुआ, या चाह कर भी सो न सका  सामने वाले घर में आज भी, अभी तक कोई सोया नहीं  में भी तो अब तक सोया नहीं, नींद का कोई पता नहीं  आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley --o Re Kabira 060 o--

Re Kabira 059 - क्या ढूँढ़ते हैं ?

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--o Re Kabira 059 o-- क्या ढूँढ़ते हैं ? आप मेरी सुकून की नींद को मौत कहते हैं,  और फिर अपने  ख्वाबों मे मुझे ढूँढ़ते हैं  अजीब इत्तेफ़ाक़ है की आप मुझसे भागते हैं,  और फिर साथ फुर्शत के दो पल ढूँढ़ते हैं  कभी आप मेरे काम तो तमाशा कहते हैं,  और फिर कदरदानों की अशर्फियाँ ढूँढ़ते हैं  देखिये आप मुझे वैसे तो दोस्तों में गिनते हैं,  और फिर मुझमें अपने फायदे ढूँढ़ते हैं  कभी आप मेरे साथ दुनिया से लड़ने चलते हैं,  और फिर दुश्मनों में दोस्त ढूँढ़ते हैं  ओ रे कबीरा ! लिखते नज़्म गुमशुम एक कोने में,  और फिर भीड़ में चार तारीफें ढूँढ़ते हैं आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley --o Re Kabira 059 o--

Re Kabira 058 - That Shadow of Mine

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  --o Re Kabira 058 o-- I was a hollow frame, with that shadow of mine my mother instilled beliefs in my mind a teacher walked along and left trust behind and a family reminded me of pride that outshined I was a friend, with that shadow of mine someone robbed me of my beliefs I carried on with that trust & pride of mine another robbed me of my trust I carried on with my pride that once outshined Yesterday I've been robbed again and left me with no pride and I'm carrying on with a hollow frame of mine don't know how to get rid of that shadow of mine it's always following me behind, that shadow of mine -- Ashutosh Jhureley -- --o Re Kabira 058 o--

Re Kabira 057 - कहाँ चल दिये अभी तो बहुत सारी बातें बाँकी है

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  --o Re Kabira 057 o-- कहाँ चल दिये अभी तो बहुत सारी बातें बाँकी है कहाँ चल दिये अभी तो बहुत सारी बातें बाँकी है यहाँ कुछ यादें है, अभी तो सपने बुनना बाँकी है अभी आधे रास्ते चले है सफ़र थोड़ा और बाँकी है  सभी दीवारें तो बन गयी, घर की छत बनना बाँकी है मिले दसियों यार-दोस्त, खुद से दोस्ताना बाँकी है  पढ़े आपके बहुत शेर, अपनी ग़ज़ल सुनना बाँकी है जहाँ देखो जल्दबाज़ी है, ज़रा सा सुस्ताना बाँकी है  कहाँ भागे जा रहे हो, जो छूट गये उसे लेना बाँकी है देखे तारे बहुत रात भर, अभी तोड़ कर लाना बाँकी है सीखे ग़ुर बहुत उम्र भर, अभी चाँद को झुकाना बाँकी है  लड़खड़ाये, सम्भल गए, पर बदलना अभी बाँकी है  ज़माने ने सुनाया बहुत, पर जवाब देना अभी बाँकी है  अब तक परख़े मख़मल, ख़ारज़ार पर चलना बाँकी है अब तक पतझड़ देखा है, गुलों का खिलना बाँकी है कभी कहते थे फिर मिलेंगे, आपका लौटना बाँकी है अभी तक तुम ख़फ़ा हो, ग़लतफ़हमी मिटाना बाँकी है  कब तक बारिश से बचोगे, भीगने का लुफ़्त बाँकी है जब मिल ही गया इशारा, बस बेक़रार होना बाँकी है कहाँ चल दिये अभी तो बहुत सारी बातें बाँकी है यहाँ कुछ यादें है, अभी तो सपने बुनन

Re Kabira 056 - मेरी किताब अब भी ख़ाली

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--o Re Kabira 056 o-- मेरी किताब अब भी ख़ाली बारिष  की उन चार बूँदों का इंतेज़ार था  धरा को, जाने किधर चला गया काला बादल आवारा हो  आग़ाज़ तो गरजते बादलों ने किया था पूरे शोर से, आसमाँ में बिजली भी चमकी पुरज़ोर चारों ओर से  कोयल की कूक ने भी ऐलान कर दिया बारिष का, नाच रहे मोर फैला पंख जैसे पानी नहीं गिरे मनका  ठंडी हवा के झोंके से नम हो गया था खेति हर का मन,  टपकती बूँदों ने कर दिया सख़्त खेतों की माटी को नर्म मिट्टी की सौंधी ख़ुश्बू का अहसास मुझे  है  होने लगा, किताबें छोड़ कर बच्चों का मन भीगने को होने लगा  खुश बहुत हुआ जब देखा झूम कर नाचते बच्चों को, बना ली काग़ज़ की नाव याद कर अपने बचपन को  बहते पानी की धार में बहा दी मीठी यादों की नाव को,  सोचा निकल जाऊँ बाहर गीले कर लूँ अपने पाँव को  रुक गया, पता नहीं क्यों बेताब सा हो गया मेरा मन, ख़ाली पन्नो पर लिखने लगा कुछ शब्द हो के मगन  तेज़ थी बारिष, था शोर छत पर, था संगीत झिरती बूँदों में,  तेज़ थी धड़कन था मन व्याकुल थी उलझन काले शब्दों में  लिखे फिर काटे फिर लिखने का सिलसिला चला रात भर, बुन ही डाला ख़्यालों के घोंसले को थोड़े पीले-गीले प

Re Kabira 055 - चिड़िया

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--o Re Kabira 055 o-- चिड़िया इधर फुदकती उधर चहकती,डर जाती फिर उड़ जाती तिनके चुनती थिगड़े बुनती, झट से पेड़ों में छुप जाती सुबह होते शाम ढलते, मीठे गीत फिर सुनाने आ जाती दाना चुगने पानी पीने, वापस फिर मेरे आँगन में आ जाती कभी बारिश कभी तूफान, भाँपते जाने कहाँ गायब  हो  जाती  कभी चील कभी कौये, देख क्यों तुम घबड़ा सी जाती  बच्चे ढूंढे आँखें खोजें, जिस दिन तुम कहीं और चली जाती  दाना चुगने पानी पीने, वापस फिर मेरे आँगन में आ जाती गेहूँ खाती टिड्डे खाती, बागीचे  के  किसी कोने में घर बनाती  तुम लाती चिड़ा लाता, बारी- बारी  तुम चूजों को खिलाती  खाना सिखाती गाना सिखाती, फिर बच्चों संग उड़ जाती दाना चुगने पानी पीने, वापस फिर मेरे आँगन में आ जाती सबेरे  जाती साँझ आती, फिर झाड़ी में गुम हो जाती  जल्दी  उठाती देर तक बहलाती,  जाने  कब तुम सोने को जाती कुछ दिन कुछ हफ्ते, तुम मेरे घर की रौनक बन जाती  दाना चुगने पानी पीने, वापस फिर मेरे आँगन में आ जाती आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley --o Re Kabira 055 o--

Re Kabira 054 - इतनी जल्दी थी

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--o Re Kabira 054 o-- इतनी जल्दी थी जाने की इतनी जल्दी थी सीधे ख़ुदा से क्यों बात कर ली, जिस तरह चले गए ऐसी कोई भी बात इतनी बड़ी थी भली।  इतनी तेज भागते रहे की साँस लेने फ़ुरसत मिली ही नहीं, न तुमने देखा न तुमको देखा कब कदम थम गए बस वहीं।  चिल्लाए तो बहुत पर आवाज़ पलट कर आयी ही नहीं, हज़ारों दोस्त हैं पर एक को भी तकलीफ़ दिखाई दी नहीं।  सारे दोस्त मुज़रिम हैं क्यों कल उससे बात नहीं कर ली, जाने की इतनी जल्दी थी सीधे ख़ुदा से क्यों बात कर ली। आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira He couldn’t find someone to talk only option was to meet God. All the friends are now feeling guilty why they didn’t speak with him yesterday. #MentalHealthMatters #RIPSSR  #JustTalk --o Re Kabira 054 o--

Re Kabira 053 - बाग़ीचे की वो मेज़

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--o Re Kabira 053 o-- बाग़ीचे की वो मेज़ बाग़ीचे की उस मेज़ पर हमेशा कोई बैठा मिला है यहीं तो मेरी मुलाक़ात एक दिन उम्मीद से होने वाली है अलग-अलग चेहरों को मुस्कुराते हुए देखा है कभी सुकून से  सुस्साते और कभी ज़िन्दगी से थके  देखा है बुज़ूर्ग आँखों को बहुत दूर कुछ निहारते देखा है कभी ढलते सूरज में और कभी सितारों में खोया देखा है  बच्चों को वहां पर खिलखिलाते हुये देखा है  कभी झगड़ते हुए और कभी खुसफुसाते हुए देखा है  जवाँ जोड़ों को भी गुफ़्तुगू में खोये हुए देखा है  कभी हैरान परेशान और कभी शाम का लुफ़्त लेते देखा है   अक्सर कोई तन्हाई के कुछ पल ढूंढ़ता दिखा है  कभी आप में खोया सा और कभी सोच में डूबा दिखा है  ज़नाब कोई खुदा से हिसाब माँगते भी दिखा है कभी अपना हिस्सा लिए  और  कभी  अपने टुकड़े के लिए लड़ते दिखा है  बड़ी मुद्दत के बाद बाग़ीचे की वो मेज़ खाली है यहीं तो मेरी मुलाक़ात आज उम्मीद से होने वाली है आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira --o Re Kabira 053 o--

Re Kabira 052 - सोचो तो सही

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--o Re Kabira 052 o-- सोचो तो सही कहाँ से आ रही थी गुलाबों की वो महक बगीचे में कल? थे खिले वो पिछले बरस भी, खड़े तुम कभी हुए नहीं फ़ुरसत से एक पल  कहाँ से आ गए सड़क के उस पार वो दरख़्त वहां पर? था तो वो वहाँ पहले भी, गुम  तुम  थे इतने दिखे बस घड़ी के काँटे कलाई पर कहाँ से दिखाई देने लगे तारे आसमान में आजकल?  थे चमकते वो हर रात भी, तुमने काफी दिनों से की नहीं टहलने की पहल  कहाँ से सुनाई देने लगे वो गाने जो गुनगुनाते थे तुम कभी-कभी? है बजते वो गाने अब भी .. और गाते हो अब भी, तुम मसरूफ़ थे शोर में इतना की लुफ्त लिया ही नहीं कहाँ चली गई वो किताब जो तुमने खरीदी थी कुछ अरसे पहले ही?  है किताब उसी मेज पर अब भी, तुमने दबा दी रद्दी के ढेर में बस यूँ ही  कहाँ ख़त्म हो गई कहानी जो तुमने सुनाई थी बच्चों को आधी अधूरी ही? हैं बच्चे इंतज़ार में अब भी, तुम ही मशगुल थे कहीं और कहानी तो रुकी है वहीँ  कहाँ से आ गयी शिकायतें घर पर अब हर रोज़ नयी-नयी?  थे शिके-गिल्वे हमेशा  से  वही, तुमने बड़े दिनों के बाद ध्यान दिया है उन पर सही  कहाँ से आने लगी ख़ुश्बू मसाल

Re Kabira 050 - मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं

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-o Re Kabira 050 o-- मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ सुनने के लिए कुछ सुनाने लिए, कुछ समझने के लिए कुछ समझाने के लिए कुछ बार-बार रूठने के लिए कुछ बार-बार मनाने के लिए कुछ बार-बार मिलने के लिए कुछ बार-बार बिछड़ जाने के लिए मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ पीठ दिखाने के लिए कुछ पीठ पर आघात से बचाने के लिए कुछ झूठ बोलने के लिए कुछ सच छुपाने के लिए कुछ दूर खड़े रहने के लिए कुछ दूर खड़े रहने का यक़ीन दिलाने के लिए कुछ भरोसा करने के लिए कुछ का विस्वास बन जाने के लिए मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ चापलूसी करने के लिए कुछ हौसला बढ़ाने के लिए कुछ तालियाँ बजाने के लिए कुछ सच्चाई बताने के लिए कुछ गलितयाँ करवाने के लिए कुछ गलितयों में साथ निभाने के लिए कुछ गलतियों को कारनामा बताने के लिए कुछ गलितयों का अहसास दिलाने के लिए मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ राह दिखाने के लिए कुछ को रास्ता दिखाने के लिए  कुछ धकेलने के लिए कुछ खींच ले जाने के लिए कुछ साथ हँसने के लिए कुछ साथ आँसू बहाने के लिए कुछ साथ चलने के लिए कुछ पास

Re Kabira 049 - होली 2020

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-o Re Kabira 049 o-- हर्ष और उमंग न रोक सके कोई शिकवे-मलाल, बस आज हो सबके चेहरे पर लाल गुलाल ।  न टोक सके कोई मस्ती-धमाल, बस आज हों सब लोट कीचड़ में बेहाल ।।  न रोक सके कोई आलस-बहाने, बस आज सब निकले रंगो में नाहने ।  न टोक सके कोई हिंदू-मुस्लमान, बस आज सब  लग जाए मिलने मानाने ।।  न रोक सके कोई राजा-रंक, बस आज बिखर जाने दो.. निखर जाने दो सत-रंग ।  न टोक सके कोई खेल-अतरंग, बस आज हो सब के मन में उमंग.. बस हर्ष और उमंग ।। ..... होली पर आप सब को बहुत सारी शुभकामनायें  .... Wishing you all a very Happy Holi *** आशुतोष झुड़ेले  *** -o Re Kabira 049 o--

Re Kabira 047 - अदिति हो गयी १० की

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-o Re Kabira 047 o-- अदिति  हो गयी १० की लगती बात यूँही बस कल की, जब आयी थी अदिति गोद पर लो जी बिटिया हमारी हो गयी १० की, अब भी कूदे मेरी तोंद पर बन गया था अदिति का दादा, नाम चुना जब आदित ने तुम्हारा कहती है आदित को दादा, तुम्हारी दादागिरी पर कुछ करे न बेचारा आयी तो थी बन कर छोटी गुड़िया, पर निकली सबकी नानी हो तुम ४ फुट की पुड़िया, करे मनमानी जाने बात अपनी  मनवानी कभी गुस्से में कभी चिड़चिड़ के, हम डरते हैं गुबार से तुम्हारी कभी चहकती कभी फुदकती, हर तरफ गूंजे खिलखिलाहट तुम्हारी आदित की दिति मम्मा की डुइया, पापा को लगती सबसे दुलारी  दादा-दादी-नानी की अदिति रानी, शैतानी लगे सबको तुम्हारी प्यारी क्यों इतनी जल्दी बढ़ रही हो भैया, थोड़ा रुक जाओ अदिति मैया लो जी बिटिया हमारी हो गयी १० की, अब भी कूदे मेरी तोंद पर भैया  *** आशुतोष झुड़ेले  *** -o Re Kabira 047 o--

Re Kabira 045 - सोच मत बदल लेना

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--o Re Kabira 045 o-- सोच मत बदल लेना यदि कभी आ कर मेरे हाल पूँछ लिए, तो मेरी हंसी को ख़ुशी मत बता देना  हम भी जब आयें मिज़ाज़ पूछने आपके, हमारी गुज़ारिश को फ़रियाद मत कह  देना  बोले  रे  कबीरा वक़्त नाज़ुक़ नहीं होता, कभी उसकी नज़ाक़त हरकतों पर ग़ौर तो कर  दो न कत्थक को नाही कथा पर ध्यान हो, दाद हर थिरकन पर टूटे घुंघरूओं को दो नदी की तक़दीर पता है रहीम को, चंचलता को तुम आज़ादी मत समझ लेना  समुन्दर शोर नहीं करता अपने ज़र्फ़ का, उसके सुकुत को ख़ामोशी मत  समझ लेना जो सुना तूने वो किसी के ख़याल हैं, हक़ीक़त समझने की गलती मत कर लेना  जो दिखा तुम्हे वो तुम्हारा नज़रिया है, सच समझ अपनी सोच मत बदल लेना  आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira --o Re Kabira 045 o--

Re Kabira 044 - कुछ ख़ाली ख़याल

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--o Re Kabira 044 o-- कुछ ख़ाली ख़याल  ख़ाली कमरे की मेज़ पर बैठे-बैठे, कुछ ख़ाली ख़याल लिख पड़ा और ख़ाली ख़याली घोड़े दौड़ाने लगा, वो मंसूबे अब तक कामयाब हुए नहीं... ख़ाली तो प्याली थी, जिसमे अब ग़र्म काली बिना शक्कर की चाय है और ख़ाली वो मेज़बान भी था, जिसने रुक कर किया एहतिराम बुज़ूर्ग का ... ख़ाली तो काँच के ग्लास है, जो सजा रखे हैं किताबों के बीच उस अलमारी पर  और ख़ाली वो क़िताब के पन्ने भी है, जो किसी ने नहीं पढ़े अब तक ... वैसे ख़ाली तो पड़ी है वो महफ़िल की बोतल, बीवी का गुबार निकलेगा जिस पर  और ख़ाली वो सोफ़े का कोना भी होगा, जिस पर देखी थी दो-तीन सिनेमा कल ... ख़ाली तो घर भी लगता है, जब होते हैं बच्चे इधर-उधर  और ख़ाली वो आँगन वहां भी हैं, जहाँ घरवाली-घरवाले करते है इंतेज़ार त्योहरों पर  ... वहां ख़ाली तो दीवार है, जिसे सजना है एक तस्वीर से इस दिवाली पर  और ख़ाली वो चित्र भी है, जिसे रंगा नहीं रंगसाज़ ने अभी तक ... आज ख़ाली तो सड़क हैं, जहाँ ज़श्न मनता है किसी और की  जीत पर  और ख़ाली वो चौराहे-बाज़ार भी हैं, जहाँ से निकला था जलूस जुम्मे पर ... ख़ाली तो धमकियाँ हैं, ज