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Showing posts from 2020

Re Kabira 056 - मेरी किताब अब भी ख़ाली

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--o Re Kabira 056 o-- मेरी किताब अब भी ख़ाली बारिष  की उन चार बूँदों का इंतेज़ार था  धरा को, जाने किधर चला गया काला बादल आवारा हो  आग़ाज़ तो गरजते बादलों ने किया था पूरे शोर से, आसमाँ में बिजली भी चमकी पुरज़ोर चारों ओर से  कोयल की कूक ने भी ऐलान कर दिया बारिष का, नाच रहे मोर फैला पंख जैसे पानी नहीं गिरे मनका  ठंडी हवा के झोंके से नम हो गया था खेति हर का मन,  टपकती बूँदों ने कर दिया सख़्त खेतों की माटी को नर्म मिट्टी की सौंधी ख़ुश्बू का अहसास मुझे  है  होने लगा, किताबें छोड़ कर बच्चों का मन भीगने को होने लगा  खुश बहुत हुआ जब देखा झूम कर नाचते बच्चों को, बना ली काग़ज़ की नाव याद कर अपने बचपन को  बहते पानी की धार में बहा दी मीठी यादों की नाव को,  सोचा निकल जाऊँ बाहर गीले कर लूँ अपने पाँव को  रुक गया, पता नहीं क्यों बेताब सा हो गया मेरा मन, ख़ाली पन्नो पर लिखने लगा कुछ शब्द हो के मगन  तेज़ थी बारिष, था शोर छत पर, था संगीत झिरती बूँदों में,  तेज़ थी धड़कन था मन व्याकुल थी उलझन काले शब्दों में  लिखे फिर काटे फिर लिखने का सिलसिला चला रात भर, बुन ही डाला ख़्यालों के घोंसले को थोड़े पीले-गीले प

Inspirational Poets - Ramchandra Narayanji Dwivedi "Pradeep"

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Ramchandra Narayanji Dwivedi "Pradeep" ( कवि प्रदीप) was an Indian poet and songwriter who gave patriotic Hindi movies some songs that became larger calls. He adopted the pen name "Pradeep" and became renowned as Kavi Pradeep. His most famous song is "Aye Mere Watan Ke Logo" (ऐ मेरे वतन के लोगों), sung by Lata Mangeshkar, made then Prime Minister of India Pt. Nehru cry. Sharing my favorite poems of " Pradeep " here: कभी धुप कभी छाँव सुख दुःख दोनों रहते  जिसमे  जीवन है वो गाँव कभी धुप कभी छाँव, कभी धुप तो कभी छाँव भले भी दिन आते जगत में, बुरे भी दिन आते कड़वे मीठे फल करम के, यहाँ सभी पते कभी सीधे कभी उलटे पड़ते, अजब समय के पाँव कभी धुप कभी छाँव, कभी धुप तो कभी छाँव क्या खुशियाँ क्या गम, ये सब मिलते बारी बारी मालिक की मर्ज़ी पे, चलती ये दुनिया सारी ध्यान से खेना जग में, बन्दे अपनी नाव कभी धुप कभी छाँव, कभी धुप तो कभी छाँव कभी कभी खुद से बात करो कभी कभी खुद से बात करो, कभी खुद से बोलो। अपनी नज़र में तुम क्या हो? ये मन की तराजू पर तोलो। कभी कभी खुद

Re Kabira 055 - चिड़िया

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--o Re Kabira 055 o-- चिड़िया इधर फुदकती उधर चहकती,डर जाती फिर उड़ जाती तिनके चुनती थिगड़े बुनती, झट से पेड़ों में छुप जाती सुबह होते शाम ढलते, मीठे गीत फिर सुनाने आ जाती दाना चुगने पानी पीने, वापस फिर मेरे आँगन में आ जाती कभी बारिश कभी तूफान, भाँपते जाने कहाँ गायब  हो  जाती  कभी चील कभी कौये, देख क्यों तुम घबड़ा सी जाती  बच्चे ढूंढे आँखें खोजें, जिस दिन तुम कहीं और चली जाती  दाना चुगने पानी पीने, वापस फिर मेरे आँगन में आ जाती गेहूँ खाती टिड्डे खाती, बागीचे  के  किसी कोने में घर बनाती  तुम लाती चिड़ा लाता, बारी- बारी  तुम चूजों को खिलाती  खाना सिखाती गाना सिखाती, फिर बच्चों संग उड़ जाती दाना चुगने पानी पीने, वापस फिर मेरे आँगन में आ जाती सबेरे  जाती साँझ आती, फिर झाड़ी में गुम हो जाती  जल्दी  उठाती देर तक बहलाती,  जाने  कब तुम सोने को जाती कुछ दिन कुछ हफ्ते, तुम मेरे घर की रौनक बन जाती  दाना चुगने पानी पीने, वापस फिर मेरे आँगन में आ जाती आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley --o Re Kabira 055 o--

Re Kabira 054 - इतनी जल्दी थी

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--o Re Kabira 054 o-- इतनी जल्दी थी जाने की इतनी जल्दी थी सीधे ख़ुदा से क्यों बात कर ली, जिस तरह चले गए ऐसी कोई भी बात इतनी बड़ी थी भली।  इतनी तेज भागते रहे की साँस लेने फ़ुरसत मिली ही नहीं, न तुमने देखा न तुमको देखा कब कदम थम गए बस वहीं।  चिल्लाए तो बहुत पर आवाज़ पलट कर आयी ही नहीं, हज़ारों दोस्त हैं पर एक को भी तकलीफ़ दिखाई दी नहीं।  सारे दोस्त मुज़रिम हैं क्यों कल उससे बात नहीं कर ली, जाने की इतनी जल्दी थी सीधे ख़ुदा से क्यों बात कर ली। आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira He couldn’t find someone to talk only option was to meet God. All the friends are now feeling guilty why they didn’t speak with him yesterday. #MentalHealthMatters #RIPSSR  #JustTalk --o Re Kabira 054 o--

Re Kabira 053 - बाग़ीचे की वो मेज़

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--o Re Kabira 053 o-- बाग़ीचे की वो मेज़ बाग़ीचे की उस मेज़ पर हमेशा कोई बैठा मिला है यहीं तो मेरी मुलाक़ात एक दिन उम्मीद से होने वाली है अलग-अलग चेहरों को मुस्कुराते हुए देखा है कभी सुकून से  सुस्साते और कभी ज़िन्दगी से थके  देखा है बुज़ूर्ग आँखों को बहुत दूर कुछ निहारते देखा है कभी ढलते सूरज में और कभी सितारों में खोया देखा है  बच्चों को वहां पर खिलखिलाते हुये देखा है  कभी झगड़ते हुए और कभी खुसफुसाते हुए देखा है  जवाँ जोड़ों को भी गुफ़्तुगू में खोये हुए देखा है  कभी हैरान परेशान और कभी शाम का लुफ़्त लेते देखा है   अक्सर कोई तन्हाई के कुछ पल ढूंढ़ता दिखा है  कभी आप में खोया सा और कभी सोच में डूबा दिखा है  ज़नाब कोई खुदा से हिसाब माँगते भी दिखा है कभी अपना हिस्सा लिए  और  कभी  अपने टुकड़े के लिए लड़ते दिखा है  बड़ी मुद्दत के बाद बाग़ीचे की वो मेज़ खाली है यहीं तो मेरी मुलाक़ात आज उम्मीद से होने वाली है आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira --o Re Kabira 053 o--

Re Kabira 052 - सोचो तो सही

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--o Re Kabira 052 o-- सोचो तो सही कहाँ से आ रही थी गुलाबों की वो महक बगीचे में कल? थे खिले वो पिछले बरस भी, खड़े तुम कभी हुए नहीं फ़ुरसत से एक पल  कहाँ से आ गए सड़क के उस पार वो दरख़्त वहां पर? था तो वो वहाँ पहले भी, गुम  तुम  थे इतने दिखे बस घड़ी के काँटे कलाई पर कहाँ से दिखाई देने लगे तारे आसमान में आजकल?  थे चमकते वो हर रात भी, तुमने काफी दिनों से की नहीं टहलने की पहल  कहाँ से सुनाई देने लगे वो गाने जो गुनगुनाते थे तुम कभी-कभी? है बजते वो गाने अब भी .. और गाते हो अब भी, तुम मसरूफ़ थे शोर में इतना की लुफ्त लिया ही नहीं कहाँ चली गई वो किताब जो तुमने खरीदी थी कुछ अरसे पहले ही?  है किताब उसी मेज पर अब भी, तुमने दबा दी रद्दी के ढेर में बस यूँ ही  कहाँ ख़त्म हो गई कहानी जो तुमने सुनाई थी बच्चों को आधी अधूरी ही? हैं बच्चे इंतज़ार में अब भी, तुम ही मशगुल थे कहीं और कहानी तो रुकी है वहीँ  कहाँ से आ गयी शिकायतें घर पर अब हर रोज़ नयी-नयी?  थे शिके-गिल्वे हमेशा  से  वही, तुमने बड़े दिनों के बाद ध्यान दिया है उन पर सही  कहाँ से आने लगी ख़ुश्बू मसाल

Re Kabira 051 - अक्स

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--o Re Kabira 051 o-- अक्स कभी मेरे आगे दिखती हो, कभी मेरे पीछे चलती हो कभी साथ खड़ी नज़र आती हो, कभी मुझ में समा जाती हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी परछाई तो नहीं हो? कभी सुबह की धुप में हो , कभी दोपहर की गर्मी में हो  कभी शाम की ठंडी छावं में हो , कभी रात की चाँदनी में हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी अंगड़ाई तो नहीं हो? कभी मेरी घबराहट में हो, कभी मेरी मुस्कुराहट में हो कभी मेरी चिल्लाहट में हो, कभी मेरी ह्रडभडाहट में हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी सच्चाई तो नहीं हो? कभी मेरी कहानी में हो, कभी मेरी सोच में हो कभी मेरे सपनों में हो, कभी मेरे सामने खड़ी हुई हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी आरज़ू तो नहीं हो? कभी पंछी चहके तो तुम हो, कभी बहते झरनों में तुम हो कभी हवा पेड़ छू के निकले तो तुम हो, कभी लहरें रेत टटोलें तो तुम हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी ख़ामोशी तो नहीं हो? कभी कबीर के दोहो में हो, कभी ग़ालिब के शेरों में हो कभी मीरा के भजन में हो, कभी गुलज़ार के गीतों में हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी आवा

Re Kabira 050 - मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं

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-o Re Kabira 050 o-- मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ सुनने के लिए कुछ सुनाने लिए, कुछ समझने के लिए कुछ समझाने के लिए कुछ बार-बार रूठने के लिए कुछ बार-बार मनाने के लिए कुछ बार-बार मिलने के लिए कुछ बार-बार बिछड़ जाने के लिए मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ पीठ दिखाने के लिए कुछ पीठ पर आघात से बचाने के लिए कुछ झूठ बोलने के लिए कुछ सच छुपाने के लिए कुछ दूर खड़े रहने के लिए कुछ दूर खड़े रहने का यक़ीन दिलाने के लिए कुछ भरोसा करने के लिए कुछ का विस्वास बन जाने के लिए मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ चापलूसी करने के लिए कुछ हौसला बढ़ाने के लिए कुछ तालियाँ बजाने के लिए कुछ सच्चाई बताने के लिए कुछ गलितयाँ करवाने के लिए कुछ गलितयों में साथ निभाने के लिए कुछ गलतियों को कारनामा बताने के लिए कुछ गलितयों का अहसास दिलाने के लिए मैंने बहुत से दोस्त इकट्ठे किए हैं, कुछ राह दिखाने के लिए कुछ को रास्ता दिखाने के लिए  कुछ धकेलने के लिए कुछ खींच ले जाने के लिए कुछ साथ हँसने के लिए कुछ साथ आँसू बहाने के लिए कुछ साथ चलने के लिए कुछ पास

Re Kabira 049 - होली 2020

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-o Re Kabira 049 o-- हर्ष और उमंग न रोक सके कोई शिकवे-मलाल, बस आज हो सबके चेहरे पर लाल गुलाल ।  न टोक सके कोई मस्ती-धमाल, बस आज हों सब लोट कीचड़ में बेहाल ।।  न रोक सके कोई आलस-बहाने, बस आज सब निकले रंगो में नाहने ।  न टोक सके कोई हिंदू-मुस्लमान, बस आज सब  लग जाए मिलने मानाने ।।  न रोक सके कोई राजा-रंक, बस आज बिखर जाने दो.. निखर जाने दो सत-रंग ।  न टोक सके कोई खेल-अतरंग, बस आज हो सब के मन में उमंग.. बस हर्ष और उमंग ।। ..... होली पर आप सब को बहुत सारी शुभकामनायें  .... Wishing you all a very Happy Holi *** आशुतोष झुड़ेले  *** -o Re Kabira 049 o--

Re Kabira 048 - डोर

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-o Re Kabira 048 o-- डोर जब पानी मुट्ठी से सरक जावे, केबल हतेली गीली रह जावे। निकल गयो वकत बापस नहीं आवे, तेरे हाथ अफसोस ठय जावे।। ज़िन्दगी मानो तो बहुत छोटी होवे, और मानो तो बहुतै लंबी हो जावे।   सोच संकोच में लोग आगे बड़ जावे, तोहे पास पीड़ा दरद धर जावे।। जब-तब याद किसी की आवे, तो उनकी-तुम्हारी उमर और बड़ जावे।  चाहे जो भी विचार मन में आवे, बिना समय गवाये मिलने चले जावे।।   डोर लम्बी होवे तो छोर नजर न आवे,  और  जब  समटे तो उलझ बो जावे।  बोले रे कबीरा नाजुक रिस्ते-धागे होवे, झटक से जे टूट भी  जावे।। *** आशुतोष झुड़ेले  *** -o Re Kabira 048 o--

Re Kabira 047 - अदिति हो गयी १० की

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-o Re Kabira 047 o-- अदिति  हो गयी १० की लगती बात यूँही बस कल की, जब आयी थी अदिति गोद पर लो जी बिटिया हमारी हो गयी १० की, अब भी कूदे मेरी तोंद पर बन गया था अदिति का दादा, नाम चुना जब आदित ने तुम्हारा कहती है आदित को दादा, तुम्हारी दादागिरी पर कुछ करे न बेचारा आयी तो थी बन कर छोटी गुड़िया, पर निकली सबकी नानी हो तुम ४ फुट की पुड़िया, करे मनमानी जाने बात अपनी  मनवानी कभी गुस्से में कभी चिड़चिड़ के, हम डरते हैं गुबार से तुम्हारी कभी चहकती कभी फुदकती, हर तरफ गूंजे खिलखिलाहट तुम्हारी आदित की दिति मम्मा की डुइया, पापा को लगती सबसे दुलारी  दादा-दादी-नानी की अदिति रानी, शैतानी लगे सबको तुम्हारी प्यारी क्यों इतनी जल्दी बढ़ रही हो भैया, थोड़ा रुक जाओ अदिति मैया लो जी बिटिया हमारी हो गयी १० की, अब भी कूदे मेरी तोंद पर भैया  *** आशुतोष झुड़ेले  *** -o Re Kabira 047 o--

Re Kabira 046 - नज़र

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-o Re Kabira 046 o-- नज़र  मुश्किलों की तो फ़ितरत है, आती ही हैं नामुनासिब वक़्त पर अरे रफ़ीक वक़्त गलत नहीं, थिरका भी है कभी तुम्हारी नज़्मों पर  होठों पर हो वो ग़ज़ल, जो ले जाती थी तुम्हें रंगो संग आसमाँ पर मुसीबतें नहीं हैं ये असल, वो ले रही इम्तेहाँ ज़माने संग ज़मीं पर डरते है हम अक्सर ये सोच कर, नज़र लग गई ख़ुशियों पर  बोले रे कबीरा क्या कभी लगी, मेरे ख़ुदा की नज़र बंदे पर आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira --o Re Kabira 046 o--

Re Kabira 045 - सोच मत बदल लेना

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--o Re Kabira 045 o-- सोच मत बदल लेना यदि कभी आ कर मेरे हाल पूँछ लिए, तो मेरी हंसी को ख़ुशी मत बता देना  हम भी जब आयें मिज़ाज़ पूछने आपके, हमारी गुज़ारिश को फ़रियाद मत कह  देना  बोले  रे  कबीरा वक़्त नाज़ुक़ नहीं होता, कभी उसकी नज़ाक़त हरकतों पर ग़ौर तो कर  दो न कत्थक को नाही कथा पर ध्यान हो, दाद हर थिरकन पर टूटे घुंघरूओं को दो नदी की तक़दीर पता है रहीम को, चंचलता को तुम आज़ादी मत समझ लेना  समुन्दर शोर नहीं करता अपने ज़र्फ़ का, उसके सुकुत को ख़ामोशी मत  समझ लेना जो सुना तूने वो किसी के ख़याल हैं, हक़ीक़त समझने की गलती मत कर लेना  जो दिखा तुम्हे वो तुम्हारा नज़रिया है, सच समझ अपनी सोच मत बदल लेना  आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira --o Re Kabira 045 o--