Re Kabira 053 - बाग़ीचे की वो मेज़

--o Re Kabira 053 o--



बाग़ीचे की वो मेज़

बाग़ीचे की उस मेज़ पर हमेशा कोई बैठा मिला है
यहीं तो मेरी मुलाक़ात एक दिन उम्मीद से होने वाली है

अलग-अलग चेहरों को मुस्कुराते हुए देखा है
कभी सुकून से सुस्साते और कभी ज़िन्दगी से थके देखा है

बुज़ूर्ग आँखों को बहुत दूर कुछ निहारते देखा है
कभी ढलते सूरज में और कभी सितारों में खोया देखा है 

बच्चों को वहां पर खिलखिलाते हुये देखा है 
कभी झगड़ते हुए और कभी खुसफुसाते हुए देखा है 

जवाँ जोड़ों को भी गुफ़्तुगू में खोये हुए देखा है 
कभी हैरान परेशान और कभी शाम का लुफ़्त लेते देखा है  

अक्सर कोई तन्हाई के कुछ पल ढूंढ़ता दिखा है 
कभी आप में खोया सा और कभी सोच में डूबा दिखा है 

ज़नाब कोई खुदा से हिसाब माँगते भी दिखा है
कभी अपना हिस्सा लिए और कभी अपने टुकड़े के लिए लड़ते दिखा है 

बड़ी मुद्दत के बाद बाग़ीचे की वो मेज़ खाली है
यहीं तो मेरी मुलाक़ात आज उम्मीद से होने वाली है


आशुतोष झुड़ेले
Ashutosh Jhureley
@OReKabira

--o Re Kabira 053 o--

Popular posts from this blog

Re Kabira - सर्वे भवन्तु सुखिनः (Sarve Bhavantu Sukhinah)

क्यों न? - Why Not? - Re Kabira 102

पल - Moment - Hindi Poetry - Re Kabira 098