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Showing posts from 2024

रखो सोच किसान जैसी - Re Kabira 096

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-- o Re Kabira 096 o-- आचार्य रजनीष "ओशो" के प्रवचन से प्रेरित कविता रखो सोच किसान जैसी ! मेहनत से जोते प्यार से सींचे अड़चने पीछे छोड़े  उखाड़ फैंके खरपतवार दिखती जो दुश्मनों जैसी  खाद दे दवा दे दुआ दे दुलार दे रह खुद भूखे प्यासे  दिन रात पहरा दे ध्यान रखे मानो हो बच्चों जैसी  रखो सोच किसान जैसी ! कभी न कोसे न दोष दे अगर पौध न बड़े जल्दी  भूले भी न चिल्लाए पौधो पर चाहे हो फसल जैसी  न उखाड़ फेंके पौध जब तक उपज न हो पक्की  चुने सही फसल माटी-मौसम के मन को भाए जैसी  रखो सोच किसान जैसी ! पूजे धरती नाचे गाये उत्सव मनाए तब हो बुआई  दे आभार फिर झूमे मेला सजाये कटाई हो जैसी बेचे आधी, बोए पौनी, थोड़ी बाँटे तो थोड़ी बचाए अपने पौने से चुकाए कर्ज़े की रकम पर्वत जैसी  रखो सोच किसान जैसी ! प्रवृत्ति है शांत पर घबराते रजवाड़े नेता व शैतान कभी अच्छी हो तो कभी बुरी सही कमाई हो जैसी न कोई छुट्टी न कोई बहाना न कुछ बने मजबूरी  सदा रहती अगली फसल की तैयारी पहले जैसी ओ रे कबीरा,   रखो  सोच किसान जैसी ! रखो सोच किसान जैसी ! आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira -- o Re Kabira 096 o--

शौक़ नहीं दोस्तों - Re Kabira 095

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-- o Re Kabira 095 o--   शौक़ नहीं दोस्तों वहाँ जाने का है मुझे शौक़ नहीं दोस्तों जहाँ ज़िस्म तो है सजे रूह नहीं दोस्तों कुछ सुनना है कुछ सुनाना भी दोस्तों जो कह न सकें गले लगाना भी दोस्तों तस्वीरों में सब ज़ख़्म छुपाते हैं दोस्तों अरसा हुआ मिले दर्द बताना है दोस्तों  ख़ुशियाँ अधूरी हैं जो बाँटी नहीं दोस्तों महफ़िलें बेगानी हैं जो तुम नहीं दोस्तों हमारी यादें हैं जो बारबार हँसाती दोस्तों मुलाक़ातें ही हैं जो क़िस्से बनाती दोस्तों वक़्त लगता थम गया था जो तब दोस्तों धुँधली यादों के पल जीना वो अब दोस्तों गलियारों में गूँजे अफ़साने हमारे दोस्तों दरवाज़ों पे भी हैं गुदे नाम तुम्हारे दोस्तों गले में हाथ डाल बेख़बर घूमना दोस्तों बेफ़िक्र टूटी चप्पल में चले आना दोस्तों गुनगुनाना धुने जो कभी भूली नहीं दोस्तों झूमें गानों पर जो फिर ले चले वहीं दोस्तों कुछ रास्ते है जहाँ बेहोशी में भी न गुमे दोस्तों कुछ गलियाँ हैं वहाँ हमारे निशाँ छुपे दोस्तों लोग कहते हैं फ़िज़ूल वक़्त गवाया दोस्तों कौन समझाए क्या कमाया है मैंने दोस्तों कल हो न हो आज तो मेरे है पास दोस्तों कोई हो न हो तुम मिलोगे है आस दोस्तों तब

एक बूँद की औकात - Re Kabira 094

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-- o Re Kabira 094 o--   एक बूँद की औकात बाग़ीचे के कोने में लगे नल से पानी टपकता रहा पूरी रात बूँद-बूँद से भर गए कच्ची सड़क के खड्डे मानो हुई बरसात टिड्डे-मक्खी-मच्छर भिनभिना लगे अंजाम देने कोई वारदात बैठी गैया को मिली राहत तपती धुप कर रही थी आघात पक्षियों का भी लगा ताँता आए फुदक डाल-डाल पात-पात पंडा जपत मंत्र तोड़ लाओ लाल फूल बगिया से बच बचात कीचड़ देख गली के बच्चों को सूझन लगी गजब खुरापात मिल गया मौका उधम मचाने का ज्यों एक ने की शुरुआत मोहल्ले का बनिया चिल्लाया सुधारोगे नहीं बिना खाये लात चिड़चिड़ा माली को बोला काहे नलके को नाही सुधरवात?  बड़बड़ाया माली कोई न सुधारे कह पीते पानी छोटी जात और बोले मुनीम हरी रहती मैदानी घास क्यों मचाते उत्पात? गुस्से में निकला बनिया झगड़ने त्यों भागे बच्चे दे उसे मात फसी धोती फिसल गिरा धपाक मिली कीचड़ की सौगात सोचे ओ रे कबीरा चूँती टोटी ने सीखा दी इतनी बड़ी बात मार ताना बोला लाला तू तो जाने ही है एक बूँद की औकात आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira -- o Re Kabira 094 o--  

तुम कहते होगे - Re Kabira 093

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-- o Re Kabira 093 o-- मेरे प्रिय मित्र के पिता जी का निधन कुछ वर्षों पहले हो गया था.  ये कविता मेरे दोस्त के लिए, अंकल की याद में.... तुम कहते होगे जब भी तुम किसी परेशानी के हल खोजते होगे  जब भी कभी तुम थक-हार कर सुस्ताने बैठते होगे  जब भी तुम धुप में परछाई को पीछे मुड़ देखते होगे जब भी तुम आईने में खुद से चार बातें करते होगे  तुम कहते होगे, पापा मैं आपको ढूँढ़ता रह जाता हूँ ! जब आंटी की चाय उबल बार बार छलक जाती होगी  जब आंटी डाँटने से पहले कुछ सोच में पड़ जाती होंगी  जब आंटी दाल में नमक डालना बार बार भूल जाती होंगी  जब आंटी दीवार पर लगी तस्वीर में घंटों खो जाती होंगी  तुम कहते होगे, पापा मैं आपको ढूँढ़ता रह जाता हूँ ! जब बच्चों की आँखों अपनी तस्वीर देखते होगे  जब बच्चों की आदतों में अपने आप को पाते होगे  जब बच्चों की ज़िद के आगे न चाह के हारते होगे  जब बच्चों थोड़ी देर नज़र न आये तो घबराते होगे  तुम कहते होगे, पापा मैं आपको ढूँढ़ता रह जाता हूँ ! जब पत्नी की चिड़-चिड़ाहट में अपना बचपन देखते होगे  जब पत्नी और बच्चों की बातों में अपना लड़कपन देखते होगे  जब पत्नी के साथ तस्वीरों में अपना

मिलना ज़रूरी है - Re Kabira 092

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—o Re Kabira 092 o— मिलना ज़रूरी  है कहाँ से चले थे, कहाँ पहुँच गए जिन रास्तों पर साथ चले थे, पता नहीं कब अलग हो गए जो यार कमर से जुड़े थे, ऐसा लगता है बिछड़ गए ....  सूरत बदल गई, सीरत बदल गई, आदतें बदल गईं, शौक बदल गए, दस्तूर बदल गए, रिवाज़ बदल गए ....  तुम नहीं सुधरोगे.... तुम बिल्कुल नहीं बदले  ... सुनना ज़रूरी है, मिलना ज़रूरी है P.E.T. की रैंक, कॉलेज, ब्रांच, हॉस्टल में कमरा, viva, practical, exam, CAT, GATE , GRE , GMAT, कैंपस इंटरव्यू, की दौड़ नौकरी, तर्रक्की, ओहदा, दौलत, शोहरत की होड़ CEO, CTO, COO, CIO, Manager, Partner,  Director,  Founder, Co-founder,  Developer, Engineer, Scientist, Professor, Mentor के पीछे मेरे दोस्त तुम हो, नहीं कोई और Facebook, Insta, LinkedIN दिखाती नकली तसवीरें, है असलियत और बोला था फिर मिलेंगे किसी चौराहे, किसी मोड़ अपनी लड़ाई की कहानी जो रखी है तुमने जोड़ ... बांटना ज़रूरी है, मिलना ज़रूरी है आपने श्रीमति - श्रीमान से छुपा रखे हैं जो राज़, किस्से कहानी बताईं, नहीं बताये असल काण्ड काज कॉलेज का पोर्च, क्लासरूम, कैंटीन के पोहे, हॉस्टल के कमरे, कमरों की खिड़की के किस्

क्यों न एक प्याली चाय हो जाए - Re Kabira 091

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  क्यों न एक प्याली चाय हो जाए? कुछ चटपटी कुछ खट्टी-मीठी बातें,  साथ बिस्कुट डुबो कर हो जाएं  पूरे दिन का लेखा-जोखा,  थोड़ी शिकायत थोड़ी वक़ालत हो जाए  ज़रा सुस्ताके फिर भाग दौड़ में लगने से पहले, सुबह-दोपहर-शाम ... क्यों न एक और प्याली चाय हो जाए? कभी बिलकुल चुप्पी साधे, कभी गुनगुनाते खिलखिलाते बतयाते कभी गहरी सोच में कभी नोक झोंक में  कभी किसी के इंतज़ार में कभी किसी से इंकार में  पहले आप पहले आप में , सामने रखी हुई कहीं ठंडी न हो जाए  किसी बहाने से भी..  क्यों न एक और प्याली चाय हो जाए? छोटे बड़े सपने चीनी संग घुल जाएं  मुश्किल बातें उलझे मसले एक फूँक में आसन हो जाएं  खर्चे-बचत की बहस साथ अदरक कुट जाए और बिना कुछ कहे सब समझ एक चुस्की लगाते आ जाए सेहत के माने ही सही मीठा कम की हिदयात मिल जाए  और फिर कहना, मन नहीं भरा.... क्यों न एक और प्याली चाय हो जाए? सकरार की चर्चा, पड़ोस की अफ़वाह मसालेदार हो जाएं  बिगड़ते रिश्ते, नए नाते निखर जाएं  चुटकुले-किस्से-अटकलें और भी मजेदार हो जाएं  दोस्तों से गुमठी पर मुलाकातें यादगार हो जाएं  और बारिश में संग पकोड़े मिल जाए तो बनाने वाले की जय जय कार हो जाए  आखि

उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू - Re Kabira 090

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--o Re Kabira 090 o-- उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू  उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू,  क्यों सो रही है यूँ ? पता नहीं कल कहाँ जले तू,  क्यों रो रही है यूँ ? निकलती अंधियारे में तू, क्यों खो रही है यूँ ? लड़खड़ाती न संभलती तू, क्यों हो रही है यूँ ? उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू,  क्यों सो रही है यूँ ? अंगारों पे भुनकती तू, क्यों रो रही है यूँ ? प्रेतों सी भटकती तू, क्यों खो रही है यूँ ? घबड़ाती न लड़ती तू, क्यों हो रही है यूँ ? उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू,  क्यों सो रही है यूँ ? मझधार में खिलखिला तू, क्यों रो रही है यूँ ? चट्टानों में घर बना तू, क्यों खो रही है यूँ ? बारिष में आग लगा तू, क्यों हो रही है यूँ ? उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू,  क्यों सो रही है यूँ ? आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira --o Re Kabira 090 o-- 

तमाशा बन गया - Re Kabira 089

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--o Re Kabira 089 o-- कई बार अपने अनुभवों, अपने चुनावों, अपनी धारणाओं के कारण हम स्वयं के ही आलोचक बन जाते हैं। अपने आप पर संदेह करने लगते हैं, अपने आप से वो सवाल करने लगते हैं जिनका कोई जवाब नहीं होता।  ऐसे ही भाव को व्यक्त करती एक कविता ... तमाशा बन गया तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी ज़िन्दगी का मसला बन गया, रह-रह कर बिगड़ते-बिगड़ते मेरे फ़ैसलों का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी बात-चीतों का करारनामा बन गया, रह-रह कर सीखते-सीखते मेरी बेख़बरी का तमाशा बन गया  पता नहीं कैसे मेरी रस्म-ओ-राह का फायदा-नुक्सान बन गया, रह-रह कर कुचलते-कुचलते मेरे उसूलों का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी नाराज़गी का इन्तेक़ाम बन गया, रह-रह कर छुपते-छुपते मेरे किस्सों का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी दोस्ती का मक़बरा बन गया, रह-रह कर गिरते-गिरते मेरे मायने का तमाशा बन गया  पता नहीं कैसे मेरी गुहार का शोर बन गया, रह-रह कर बहते-बहते मेरे आँसुओं का तमाशा बन गया  पता नहीं कैसे मेरी हक़ीक़त का झूठ बन गया, रह-रह कर ढकते-ढकते मेरे परदे का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी सोच का ताना बन गया, रह-रह कर खड़े-खड़े मेरे ख़्वाबो

चलो नर्मदा नहा आओ - Re Kabira 088

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--o Re Kabira 88 o--   चलो नर्मदा नहा आओ  हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई है बड़ी अनूठी नर्मदा में आस्था बनाई है चोरी-ठगी-लूट करते जाओ, हर एकादशी नर्मदा नहा आओ दिन भर कुकर्म करो और शाम नर्मदा में डुपकी लगा आओ अन्याय अत्याचार करते जाओ, भोर होते नर्मदा नहा आओ षड्यंत रचो धोखाधड़ी करो और नर्मदा में स्नान कर आओ हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई है बड़ी अनोखी नर्मदा परिक्रमा बनाई है पाप तुम कर, अपराध तुम कर, नर्मदा में हाथ धो आओ कर्मों का हिसाब और मन का मैल नर्मदा में घोल आओ जितने बड़े पाप उतने बड़ा पूजन नर्मदा घाट कर आओ समस्त दुष्टता के दीप बना दान नर्मदा पाट कर आओ हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई है बड़ी अजीब नर्मदा की दशा बनाई है दीनो से लाखों छलाओ सौ दान नर्मदा किनारे कर आओ दरिद्रों का अन्न चुराओ और भंडारा नर्मदा तट कर आओ मैया मैया कहते अपराधों का बोझ नर्मदा को दे आओ बोल हर हर अपने दोषों से दूषित नर्मदा को कर आओ हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई है बड़ी गजब नर्मदा की महिमा बनाई है इतने पाप इकट्ठे कर कहाँ नर्मदा जायेगी, पर तुम नर्मदा नहा आओ हमारे पाप डोकर कैसे नर्मदा स्वर्ग जायेगी, पर तुम नर्मदा नहा आओ अपन

Re Kabira 087 - पहचानो तुम कौन हो?

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  --o Re Kabira 87 o-- आचार्य रजनीश "ओशो" के प्रवचन "पहचानो कौन हो?" से प्रेरित कविता - पहचानो तुम कौन हो? पहचानो तुम कौन हो? बिछड़ गया था अपनी माँ से घने जंगल में जो, शेरनी का दूध पीता शावक था वो, भूखा-प्यासा गिर पड़ा थका-माँदा मूर्क्षित हो, मिल गया भेड़ के झुंड को...   अचंभित भेड़ बो ली - पहचानो तुम कौन हो?   चहक उठा मुँह लगा दूध भेड़ का ज्यों, बड़ा होने लगा मेमनो के संग घास चरता त्यों, फुदकता सर-लड़ाता मिमियता मान भेड़ खुद को, खेल-खेल में दबोचा मेमने को...   घब रा कर मेमना बोला- पहचानो तुम कौन हो?   सर झुका घास-फूस खाता, नहीं उठाता नज़रें कभी वो, सहम कर भेड़ों की भीड़ संग छुप जाता भांप खतरा जो, किसी रात भेड़िया आया चुराने मेमनो को, भाग खड़ा हुआ भेड़िया देख शेर के बच्चे को..   ख़ुशी से मेमने बोले - पहचानो तुम कौन हो?   जवान हुआ, बलवान हुआ, दहाड़ने लगा, लगा मूंछे तानने वो, थोड़ा हिचकिचाने ल गीं भेड़ देख उ सके पंजों को, भरी दोपहरी एक और शेर आया भोजन बनाया दो भेड़ों को, और घूरता रहा मिमयाते भेड़ की रूह वाले इस शेर को   ग़ुस्से मे

Re Kabira 086 - पतंग सी ज़िन्दगी

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  --o Re Kabira 86 o-- पतंग सी ज़िन्दगी आज बड़े दिनों बाद एक लहराती हुई पतंग को देखा, देखा बड़े घमंड से, बड़ी अकड़ से तनी हुई थी थोड़ा गुमा था कि बादलों से टकरा रही है, हवा के झोंके पर नख़रे दिखा रही है   यकीन था... मनचली है, आज़ाद है.. एहसास क़तई न था कि बंधी है, एक कच्ची डोर से, नाच रही है किसी के इ शारों पर, धागे के दू सरे छोर पे, इतरा रही है परिंदों की चौखट पर, आँखें दिखाती ज़ोर से   ज़रा इल्म न था कि तब तक ही इतरा सकती है, जब तक अकेली है तब तक ही दूर लहरा सकती है, जब तक हवा सहेली है   जैसे ही और पतंगे आसमान में नज़र आ ई , घबराने लगी ! जैसे ही हवा का रुख बद ला , लड़खड़ाने लगी !   डर था, कहीं डोर कट ग ई , तो आँधी कहाँ ले जा ए गी?   डर था, कहीं बादल रूठ ग ए , तो कैसे इठलाएगी?   डर था, कहीं बिछड़ ग ई , तो क्या अंजाम पा ए गी?   डरी हुई थी, सहमी हुई थी...   वो काटा है !! हुँकार गूँज उठी.. एक फ़र्राटेदार झटके में , पलक झपकते, दूजी पतंग ने काट दी नाज़ुक़ डोर, अकड़ चली ग ई , कट ग ई , नज़र न आ ई घमंड की दूसरी छोर   ओ रे कबीरा, थ