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तमाशा बन गया - Re Kabira 089

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--o Re Kabira 089 o-- कई बार अपने अनुभवों, अपने चुनावों, अपनी धारणाओं के कारण हम स्वयं के ही आलोचक बन जाते हैं। अपने आप पर संदेह करने लगते हैं, अपने आप से वो सवाल करने लगते हैं जिनका कोई जवाब नहीं होता।  ऐसे ही भाव को व्यक्त करती एक कविता ... तमाशा बन गया तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी ज़िन्दगी का मसला बन गया, रह-रह कर बिगड़ते-बिगड़ते मेरे फ़ैसलों का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी बात-चीतों का करारनामा बन गया, रह-रह कर सीखते-सीखते मेरी बेख़बरी का तमाशा बन गया  पता नहीं कैसे मेरी रस्म-ओ-राह का फायदा-नुक्सान बन गया, रह-रह कर कुचलते-कुचलते मेरे उसूलों का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी नाराज़गी का इन्तेक़ाम बन गया, रह-रह कर छुपते-छुपते मेरे किस्सों का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी दोस्ती का मक़बरा बन गया, रह-रह कर गिरते-गिरते मेरे मायने का तमाशा बन गया  पता नहीं कैसे मेरी गुहार का शोर बन गया, रह-रह कर बहते-बहते मेरे आँसुओं का तमाशा बन गया  पता नहीं कैसे मेरी हक़ीक़त का झूठ बन गया, रह-रह कर ढकते-ढकते मेरे परदे का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी सोच का ताना बन गया, रह-रह कर खड़े-खड़े मेरे ख़्वाबो