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Showing posts from January, 2024

Re Kabira 087 - पहचानो तुम कौन हो?

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  --o Re Kabira 87 o-- आचार्य रजनीश "ओशो" के प्रवचन "पहचानो कौन हो?" से प्रेरित कविता - पहचानो तुम कौन हो? पहचानो तुम कौन हो? बिछड़ गया था अपनी माँ से घने जंगल में जो, शेरनी का दूध पीता शावक था वो, भूखा-प्यासा गिर पड़ा थका-माँदा मूर्क्षित हो, मिल गया भेड़ के झुंड को...   अचंभित भेड़ बो ली - पहचानो तुम कौन हो?   चहक उठा मुँह लगा दूध भेड़ का ज्यों, बड़ा होने लगा मेमनो के संग घास चरता त्यों, फुदकता सर-लड़ाता मिमियता मान भेड़ खुद को, खेल-खेल में दबोचा मेमने को...   घब रा कर मेमना बोला- पहचानो तुम कौन हो?   सर झुका घास-फूस खाता, नहीं उठाता नज़रें कभी वो, सहम कर भेड़ों की भीड़ संग छुप जाता भांप खतरा जो, किसी रात भेड़िया आया चुराने मेमनो को, भाग खड़ा हुआ भेड़िया देख शेर के बच्चे को..   ख़ुशी से मेमने बोले - पहचानो तुम कौन हो?   जवान हुआ, बलवान हुआ, दहाड़ने लगा, लगा मूंछे तानने वो, थोड़ा हिचकिचाने ल गीं भेड़ देख उ सके पंजों को, भरी दोपहरी एक और शेर आया भोजन बनाया दो भेड़ों को, और घूरता रहा मिमयाते भेड़ की रूह वाले इस शेर को   ग़ुस्से मे

Re Kabira 086 - पतंग सी ज़िन्दगी

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  --o Re Kabira 86 o-- पतंग सी ज़िन्दगी आज बड़े दिनों बाद एक लहराती हुई पतंग को देखा, देखा बड़े घमंड से, बड़ी अकड़ से तनी हुई थी थोड़ा गुमा था कि बादलों से टकरा रही है, हवा के झोंके पर नख़रे दिखा रही है   यकीन था... मनचली है, आज़ाद है.. एहसास क़तई न था कि बंधी है, एक कच्ची डोर से, नाच रही है किसी के इ शारों पर, धागे के दू सरे छोर पे, इतरा रही है परिंदों की चौखट पर, आँखें दिखाती ज़ोर से   ज़रा इल्म न था कि तब तक ही इतरा सकती है, जब तक अकेली है तब तक ही दूर लहरा सकती है, जब तक हवा सहेली है   जैसे ही और पतंगे आसमान में नज़र आ ई , घबराने लगी ! जैसे ही हवा का रुख बद ला , लड़खड़ाने लगी !   डर था, कहीं डोर कट ग ई , तो आँधी कहाँ ले जा ए गी?   डर था, कहीं बादल रूठ ग ए , तो कैसे इठलाएगी?   डर था, कहीं बिछड़ ग ई , तो क्या अंजाम पा ए गी?   डरी हुई थी, सहमी हुई थी...   वो काटा है !! हुँकार गूँज उठी.. एक फ़र्राटेदार झटके में , पलक झपकते, दूजी पतंग ने काट दी नाज़ुक़ डोर, अकड़ चली ग ई , कट ग ई , नज़र न आ ई घमंड की दूसरी छोर   ओ रे कबीरा, थ