Re Kabira 086 - पतंग सी ज़िन्दगी

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पतंग सी ज़िन्दगी

आज बड़े दिनों बाद एक लहराती हुई पतंग को देखा,

देखा बड़े घमंड से, बड़ी अकड़ से तनी हुई थी

थोड़ा गुमा था कि बादलों से टकरा रही है,

हवा के झोंके पर नख़रे दिखा रही है

 

यकीन था... मनचली है, आज़ाद है..

एहसास क़तई न था कि बंधी है, एक कच्ची डोर से,

नाच रही है किसी के शारों पर, धागे के दूसरे छोर पे,

इतरा रही है परिंदों की चौखट पर, आँखें दिखाती ज़ोर से

 

ज़रा इल्म न था कि तब तक ही इतरा सकती है,

जब तक अकेली है

तब तक ही दूर लहरा सकती है,

जब तक हवा सहेली है

 

जैसे ही और पतंगे आसमान में नज़र आ,

घबराने लगी !

जैसे ही हवा का रुख बदला,

लड़खड़ाने लगी !

 

डर था,

कहीं डोर कट ग,

तो आँधी कहाँ ले जागी?

 

डर था,

कहीं बादल रूठ ग,

तो कैसे इठलाएगी?

 

डर था,

कहीं बिछड़ ग,

तो क्या अंजाम पागी?

 

डरी हुई थी, सहमी हुई थी...

 

वो काटा है !! हुँकार गूँज उठी..

एक फ़र्राटेदार झटके में, पलक झपकते,

दूजी पतंग ने काट दी नाज़ुक़ डोर,

अकड़ चली ग, कट ग, नज़र न आ घमंड की दूसरी छोर

 

ओ रे कबीरा, थी पतंग बड़ी असमंजस में..

 

क्या सीना ताने डटी रहे किसी माँझे की गर्जन पर?

या लड़े और पतंगों से किसी के प्रदर्शन पर?

क्या कट-कर छुट-कर कुछ समय ही सही, आज़ाद रहे हवा की तरंगों पर?

या फिर बार-बार लुट कर शामिल हो बच्चों की उमंगों पर?

 

बादलों के बीच आज़ादी का जश्न मनाती,

चरखे को पीछे छोड़, नज़रें चुराती दूर निकल जाती

मायूस थी उदास थी धरा के पास थी,

लहराती बलखाती मतवाली उसकी चाल थी

 

लूटो इस पतंग को !!!

चिल्ला पड़े गली में उछलते बच्चे

ऊपर निगाहें चढ़ी हुई बाहें

कूंदते फांदते भागे सारे शोर मचाते मौज मानते

 

जान वापस पतंग में मानो आई,

फिर इतराई, लहराई, हवा के नशे में बहकाई

ऊपर नीचे कुछ इधर कुछ उधर भागे आगे पीछे

मेरी है !!! चिल्लाया इक बालक छोटी डोर खींचे

 

फिर बंधी, माँझे चढ़ी,

फिर हवा के झोंके संग की लड़ाई,

फिर बादलों से टकराई,

फिर दूर उड़ चली, आसमाँ में मुस्कुराती नज़र आई

 

पतंग सी ज़िन्दगी,

पतंग सी मेरी ज़िन्दगी,

इठलाती इतराती लहराती मुस्कुराती,

बार-बार दूर उड़ी चली जाती और फिर वापस आ जाती !



आशुतोष झुड़ेले
Ashutosh Jhureley
@OReKabira




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