Re Kabira 046 - नज़र


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नज़र 

मुश्किलों की तो फ़ितरत है, आती ही हैं नामुनासिब वक़्त पर
अरे रफ़ीक वक़्त गलत नहीं, थिरका भी है कभी तुम्हारी नज़्मों पर 

होठों पर हो वो ग़ज़ल, जो ले जाती थी तुम्हें रंगो संग आसमाँ पर
मुसीबतें नहीं हैं ये असल, वो ले रही इम्तेहाँ ज़माने संग ज़मीं पर

डरते है हम अक्सर ये सोच कर, नज़र लग गई ख़ुशियों पर 
बोले रे कबीरा क्या कभी लगी, मेरे ख़ुदा की नज़र बंदे पर



आशुतोष झुड़ेले
Ashutosh Jhureley
@OReKabira


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