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उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू - Re Kabira 090

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--o Re Kabira 090 o-- उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू  उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू,  क्यों सो रही है यूँ ? पता नहीं कल कहाँ जले तू,  क्यों रो रही है यूँ ? निकलती अंधियारे में तू, क्यों खो रही है यूँ ? लड़खड़ाती न संभलती तू, क्यों हो रही है यूँ ? उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू,  क्यों सो रही है यूँ ? अंगारों पे भुनकती तू, क्यों रो रही है यूँ ? प्रेतों सी भटकती तू, क्यों खो रही है यूँ ? घबड़ाती न लड़ती तू, क्यों हो रही है यूँ ? उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू,  क्यों सो रही है यूँ ? मझधार में खिलखिला तू, क्यों रो रही है यूँ ? चट्टानों में घर बना तू, क्यों खो रही है यूँ ? बारिष में आग लगा तू, क्यों हो रही है यूँ ? उठ जा मेरी ज़िन्दगी तू,  क्यों सो रही है यूँ ? आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira --o Re Kabira 090 o-- 

तमाशा बन गया - Re Kabira 089

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--o Re Kabira 089 o-- कई बार अपने अनुभवों, अपने चुनावों, अपनी धारणाओं के कारण हम स्वयं के ही आलोचक बन जाते हैं। अपने आप पर संदेह करने लगते हैं, अपने आप से वो सवाल करने लगते हैं जिनका कोई जवाब नहीं होता।  ऐसे ही भाव को व्यक्त करती एक कविता ... तमाशा बन गया तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी ज़िन्दगी का मसला बन गया, रह-रह कर बिगड़ते-बिगड़ते मेरे फ़ैसलों का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी बात-चीतों का करारनामा बन गया, रह-रह कर सीखते-सीखते मेरी बेख़बरी का तमाशा बन गया  पता नहीं कैसे मेरी रस्म-ओ-राह का फायदा-नुक्सान बन गया, रह-रह कर कुचलते-कुचलते मेरे उसूलों का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी नाराज़गी का इन्तेक़ाम बन गया, रह-रह कर छुपते-छुपते मेरे किस्सों का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी दोस्ती का मक़बरा बन गया, रह-रह कर गिरते-गिरते मेरे मायने का तमाशा बन गया  पता नहीं कैसे मेरी गुहार का शोर बन गया, रह-रह कर बहते-बहते मेरे आँसुओं का तमाशा बन गया  पता नहीं कैसे मेरी हक़ीक़त का झूठ बन गया, रह-रह कर ढकते-ढकते मेरे परदे का तमाशा बन गया पता नहीं कैसे मेरी सोच का ताना बन गया, रह-रह कर खड़े-खड़े मेरे ख़्वाबो

चलो नर्मदा नहा आओ - Re Kabira 088

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--o Re Kabira 88 o--   चलो नर्मदा नहा आओ  हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई हैj बड़ी अनूठी नर्मदा में आस्था बनाई है चोरी-ठगी-लूट करते जाओ, हर एकादशी नर्मदा नहा आओ दिन भर कुकर्म करो और शाम नर्मदा में डुपकी लगा आओ अन्याय अत्याचार करते जाओ, भोर होते नर्मदा नहा आओ षड्यंत रचो धोखाधड़ी करो और नर्मदा में स्नान कर आओ हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई है बड़ी अनोखी नर्मदा परिक्रमा बनाई है पाप तुम कर, अपराध तुम कर, नर्मदा में हाथ धो आओ कर्मों का हिसाब और मन का मैल नर्मदा में घोल आओ जितने बड़े पाप उतने बड़ा पूजन नर्मदा घाट कर आओ समस्त दुष्टता के दीप बना दान नर्मदा पाट कर आओ हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई है बड़ी अजीब नर्मदा की दशा बनाई है दीनो से लाखों छलाओ सौ दान नर्मदा किनारे कर आओ दरिद्रों का अन्न चुराओ और भंडारा नर्मदा तट कर आओ मैया मैया कहते अपराधों का बोझ नर्मदा को दे आओ बोल हर हर अपने दोषों से दूषित नर्मदा को कर आओ हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई है बड़ी गजब नर्मदा की महिमा बनाई है इतने पाप इकट्ठे कर कहाँ नर्मदा जायेगी, पर तुम नर्मदा नहा आओ हमारे पाप डोकर कैसे नर्मदा स्वर्ग जायेगी, पर तुम नर्मदा नहा आओ अप

Re Kabira 087 - पहचानो तुम कौन हो?

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  --o Re Kabira 87 o-- आचार्य रजनीश "ओशो" के प्रवचन "पहचानो कौन हो?" से प्रेरित कविता - पहचानो तुम कौन हो? पहचानो तुम कौन हो? बिछड़ गया था अपनी माँ से घने जंगल में जो, था शेरनी का दूध पीता शावक वो, भूखा-प्यासा गिर पड़ा थका-माँदा मूर्क्षित हो, मिल गया भेड़ के झुंड को... अचंभित भेड़ बोले - पहचानो तुम कौन हो? अचंभित भेड़ बोले - पहचानो तुम कौन हो? चहक उठा मुँह लगा दूध भेड़ का ज्यों, बड़ा होने लगा मेमनो के संग घास चरता त्यों, फुदकता सर-लड़ाता मिमयता मान भेड़ खुद को, खेल-खेल में दबोचा मेमने को... घबड़ा मेमना बोला - पहचानो तुम कौन हो? घबड़ाकर मेमना बोला - पहचानो तुम कौन हो? सर झुका घास-फूस खाता, नहीं उठाता नज़रें कभी वो, सहम कर भेड़ों की भीड़ संग छुप जाता भांप खतरा जो, किसी रात भेड़िया आया चुराने मेमनो को, भाग खड़ा हुआ भेड़िया देख शेर के बच्चे को.. ख़ुशी से मेमने बोले - पहचानो तुम कौन हो? ख़ुशी से मेमने बोले - पहचानो तुम कौन हो? जवान हुआ, बलवान हुआ, दहाड़ने लगा, लगा मूंछे तानने वो, थोड़ा हिचकिचाने लगे भेड़ देख इसके पंजों को, भरी दोपहरी एक और शेर आया भोजन बनाया दो भेड़ों को,  और घूरता रहा मिमया

Re Kabira 086 - पतंग सी ज़िन्दगी

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  --o Re Kabira 86 o-- पतंग सी ज़िन्दगी आज बड़े दिनों बाद एक लहराती हुई पतंग को देखा, देखा बड़े घमंड से, बड़ी अकड़ से तनी हुई थी  थोड़ा गुमा था कि बादलों से टकरा रही है, हवा के झोंके पर नख़रे दिखा रही है यकीन था... मनचली है, आज़ाद है.. एहसास क़तई न था कि बंधी है, एक कच्ची डोर से, नाच रही है किसी के ईशारों पर, धागे के दुसरे छोर पे, इतरा रही है परिंदों की चौखट पर, आँखें दिखाती ज़ोर से ज़रा इल्म न था कि तब तक ही इतरा सकती है, जब तक अकेली है तब तक ही दूर लहरा सकती है, जब तक हवा सहेली है जैसे ही और पतंगे आसमान में नज़र आयीं, घबराने लगी ! जैसे ही हवा की रुख बदली, लड़खड़ाने लगी ! डर था,  कहीं डोर कट गयी, तो आँधी कहाँ ले जायेगी? डर था, कहीं बादल रूठ गये, तो कैसे इठलाएगी? डर था, कहीं बिछड़ गयी, तो क्या अंजाम पायेगी? डरी हुई थी, सहमी हुई थी... वो काटा है !! हुँकार गूँज उठी.. एक फ़र्राटेदार झटके मे, पलक झपकते, दूजी पतंग ने काट दी नाज़ुक़ डोर, अकड़ चली गयी, कट गयी, नज़र न आयी घमंड की दूसरी छोर  ओ रे कबीरा, थी पतंग बड़ी असमंजस में.. क्या सीना ताने डटी रहे किसी माँझे की गर्जन पे? या लड़े और पतंगों से किसी के प्रदर्शन

Re kabira 085 - चुरा ले गये

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  --o Re Kabira 85 o-- चुरा ले गये  चुरा ले गये सुबह से ताज़गी,  कुछ लोग शाम से सादगी चुरा ले गये  चुरा ले गये ज़िन्दगी से दिल्लगी,  कुछ लोग बन्दे से बंदगी चुरा ले गये  चुरा ले गये आईने से अक्स, कुछ लोग मेरी परछाईं चुरा ले गये  चुरा ले गये दिल का चैन, कुछ लोग आँसुओं से नमी चुरा ले गये  चुरा ले गये बादलों से सतरंग, कुछ लोग पहली बारिष की ख़ुश्बू  चुरा ले गये चुरा ले गये बागीचे से फूल. कुछ लोग आँगन की मिट्टी ही चुरा ले गये  चुरा ले गये जिश्म से रूह, कुछ लोग कब्र से लाश चुरा ले गये  चुरा के आये ख़ाक में डूबी चौखट पर ओ रे कबीरा, कुछ लोग चार आने का हिसाब ले गये  आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira   --o Re Kabira 85 o--

Re Kabira 084 - हिचकियाँ

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  --o Re Kabira 84 o-- हिचकियाँ     बहुत  हिचकियाँ  आ रहीं है,  इतना न आप मुझे याद किया करो  बातें तो बहुत करते हो मेरी,  कभी मिलने के बहाने बना लिया करो लगता है जैसे कल ही बात है,  आप कहते थे बेवजह जश्न मना लिया करो आज बस जश्न की बातें हैं,  कभी ख़ुशी कभी ग़म बाट लेने के बहाने ढूँढ लिया करो याद तो होगा जब थोड़ा बहुत था,  और हम कहते थोड़े में बहुत के मज़े लिया करो अब और-और की हौड़ लगी है,  कभी थोड़े छोटे-छोटे पल बुन लिया करो चलते चलते हम आड़े-तिरछे रास्तों में भटकेंगे,  तुम यूँही भटक कर फिर मिल जाया करो वैसे तो आज में जो जीने का असली मज़ा है,  कभी कल को याद कर मुस्कुरा लिया करो फूल चुन कर हमने गुलदस्ता बनाया है,  भौरों को भी गुलिस्तान में मँडराने दिया करो आज हमारा सुंदर एक घरौंदा है,  कभी बिना बताये चले आ जाया करो   ढूँढते हैं हम ख़ुशियाँ गली गलियारों में, आगे बढ़ कर मुस्कुराहटें तोड़ लाया करो  देखो तो हर तरफ़ अनेकों रंग है,  कभी अपनी चहक से और रंग घोल जाया करो हँसना है रोना है रोते रोते हँसना है,  हर लम्हे को यादों में क़ैद कर लिया करो  आज मेरे पास यादों की पोटली है,  कभी तुम गठरी से मेर