Re Kabira 083 - वास्ता
 
    --o Re Kabira 83 o-- वास्ता बस चार कदमों का फासला था,  जैसे साँसों को न थमने का वास्ता था   रुक गये लफ़्ज़ जुबान पर यूँ ही,  जैसे शब्दों को न बयान होने का वास्ता था       निग़ाहें उनकी निग़ाहों पर टिकी थीं,   मेरी झिझक को तीखी नज़रों का वास्ता था   कुछ उधेड़ बुन में लगा दिमाग़ था,   क्या करूँ दिल को दिल का वास्ता था    कलम सिहाई में बड़ी जद्दोज़हद थी,  पर ख़्वाबों को ख़यालों का वास्ता था  लहू को पिघलने की ज़रूरत न थी,  पर ख़ून के रिश्तों का वास्ता था    फूलों को खिलने की जल्दी कहाँ थी,  कलियों को भवरों के इश्क़ का वास्ता था  बारिश में भीगने का शौक उनको था,  कहते थे बादलों को बिजली का वास्ता था    दो शब्द कहने की हिम्मत कहाँ थी,  पर महफ़िल में रफ़ीक़ों का वास्ता था  थोड़ा बहकने को मैं मजबूर था,  मयखाने में तो मय का मय से वास्ता था    न मंदिर न मस्ज़िद जाने की कोई वजह थी,  मेरी दुआओं को तेरे रिवाज़ों का वास्ता था   न ही तेरे दर पर भटकने की फ़ितरत थी,  ओ रे कबीरा ... मुझे तो मेरी शिकायतों का वास्ता था        मुझे तो मेरी शिकायतों का वास्ता था      ...
