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अगर प्रकृति में भेदभाव होता - If Nature Discriminated - Hindi Poetry - Re Kabira 110

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-- o Re Kabira 110 o -- अगर प्रकृति में भेदभाव होता अगर प्रकृति में भेदभाव होता... अगर बादलों का मज़हब होता तो पानी की बूँदे नहीं - तेज़ाब बरसता पहाड़ों पर बर्फ नहीं राख का ढेर होता  विषैला पानी, नदियों मे बहता लहू और  पर्वत काले - समंदर केवल लाल रंग का होता ! अगर प्रकृति में भेदभाव होता... अगर हवा गोरी या काली होती तो साँसों में ज़िन्दगी नहीं - मौत बहती ख़ुश्बू और बदबू में कोई फ़र्क न होता  परिंदे नहीं उड़ते, आसमान वीरान और  धरती काली - आकाश केवल लाल रंग का होता ! अगर प्रकृति में भेदभाव होता... अगर पेड़-पौधों की जात होती  तो फल धतूरे - फूल सारे कनेर के होते  ज़ुबान पर बस कड़वे तीखे स्वाद होते  पानी नहीं खून से सींचते, तनों पर कांटे और  जडें ज़हरीली - हर पत्ता केवल सुर्ख लाल रंग का होता ! अगर प्रकृति में भेदभाव होता, तो क्या होता? आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira -- o Re Kabira 110 o -- 

अनुगच्छतु प्रवाहं - Go With The Flow - Hindi Poetry - Re Kabira 109

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-- o Re Kabira 109 o -- अनुगच्छतु प्रवाहं टिक-टिक-टिक घड़ी की टिक-टिकी एक प्रवाह छुक-छुक-छुक रेल का रेला,  धक-धक-धक दिल  की   धड़कन और  डम-डम-डम डमरू की डमक भी प्रवाह  प्रवाह  कविता है और महा काव्य भी कहानी है, कथा  है , लेख है और ग्रंथ भी  प्रवाह प्रवाह प्रकृति है और पुरुष भी छाया है काया है साया है और माया भी प्रवाह जल प्रवाह से नदियाँ, झरने और सागर भी आकाश फटे सैलाब बरपे प्रलय का विध्वंसक प्रवाह वायु प्रवाह से श्वास भी आँधी-तूफ़ान भी क्षण में मौसम बदल जाए जब हो हवा का तीव्र प्रवाह सूरज की किरणों के प्रवाह से भोर भी साँझ भी पहर दर पहर दिन रात चलता समय का अविरल प्रवाह प्रकृति के रंगो के प्रवाह से बसंत भी बहार भी ऋतू बदनले का सन्देश लाये भौरों की गुंजन, पँछियों का संगीत प्रवाह मौसम में बदलाव का प्रवाह हो सूखे पत्तों से भी नम माटी से भी बादल गरजें, जोर से बरसे तब झूमे किसान तो हर्ष प्रवाह रंगो के प्रवाह से चित्र भी कलाकृति भी कला से व्यक्त करे कलाकार अनुभूति का प्रवाह विद्या प्रवाह से एकलव्य भी अर्जुन भी बने महान योद्धा जब मिला उन्हें गुरु ज्ञान प्र...

वो चिट्ठियाँ वो ख़त - Lost Letters - Hindi Poetry - Re Kabira 108

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-- o Re Kabira 108 o --  वो चिट्ठियाँ, वो ख़त चिट्ठियों में आती थी घर के खाने की महक,  ख़त लेकर आते थे मेरे शहर की मिट्टी,  दुःख के आँसू, और कभी ख़ुशी में झूमती खबरें। अब मुश्किल से मिलते हैं वो नीले-पीले लिफ़ाफे,  हर दूसरे दिन आते हैं दरवाज़े पर सामानों के डिब्बे,  और रद्दी के ढेर। त्योहारों पर, व्यवहारों पर इंतज़ार रहता था डाकिए का,  राखी पर चिट्ठियों का तांता, होली के रंगों में भीगी,  दीवाली पर घर बुलातीं,  वो चिट्ठियाँ, वो ख़त। जाने कहाँ चले गए वो ख़त, क्या भूल गए हम लिखना चिट्ठियाँ? कभी मिल जाती हैं कुछ भूली-बिसरी चिट्ठियाँ,  जिनमें छुपे होते हैं टूटे दिल के टुकड़े,  बहुत सी उलझनें, अड़चनें जो बोलकर नहीं कही जा सकतीं। पुरानी किताब के पन्नों के बीच निकल आते हैं ख़त,  खोल कर रख देते हैं लिखने वाले का दिल,  और बार-बार भर आता हैपढ़ने वाले का मन।   इश्क़ के इज़हार करते जो भेजे नहीं गए ख़त,  उनमें दबी रहती हैं कविताएँ, कुछ शायरियाँ,  यादों की रंगीन दुनिया में वापस ले जातीं,  वो चिट्ठियाँ, वो ख़त। जा...

मैंने अपने आप से ही रिश्ता जोड़ लिया - Relationships - Hindi Poetry - Re Kabira 107

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-- o Re Kabira 107 o -- मैंने अपने आप से ही रिश्ता जोड़ लिया, शायद रिश्तों के मायने समझ पाऊँ, हो सकता है रिश्तेदारी निभाना सीख जाऊँ पापा बन हाथ पकड़ चलना सिखा दिया, पिता बन सही गलत में फर्क बता पाऊँ, बाप बन ज़माने से ख़ुद के लिए लड़ जाऊँ मम्मी बन जबरदस्ती रोटी का निवाला खिला दिया, माता राम बन सिर पर हाथ फेर चिंताएं भगा पाऊँ, माँ बन कान-मरोड़ गलत संगती से खींच लाऊँ  भाई बन साईकल पर आगे बैठा स्कूल पहुँचा दिया, बड़ा बन गले में हाथ डाल मेलों में घुमा पाऊँ, छोटा बन शैतानियों में चुपचाप साथ निभा जाऊँ  बहन बन रो धोके ही सही थोड़ा तो सभ्य बना दिया, दीदी बन सपनों को बार-बार बुनना  सिखा पाऊँ , छोटी बन बड़े होने मतलब आप समझ  जाऊँ  बच्चे बन खुद में कमियों को मानो दर्पण में दिखा दिया, बेटा बन खुद से और भी आगे बढ़ना सीख  पाऊँ , बेटी बन अपनी ज़िद मनवाने का गुर सीख  जाऊँ   दादा-दादी बन अपने अनुभवों को कहानियों में पिरो दिया, चाचा-मामा बन संबंधों में समझौते का महत्त्व सीख पाऊँ, जीजा-फूफा बन रिश्तों में सही दूरियों का मतलब बता जाऊँ दूर का सम्बन्धी बन नातों की अ...

रंग कुछ कह रहे हैं - Holi - Colours Are Saying Something - Hindi Poetry - Re Kabira 106

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  -- o Re Kabira 106 o -- रंगf कुछ कह रहे हैं  मौसम में आज रंगों का मेला सजा,  रंग कुछ बोल रहे  हैं,  सुन लेते हैं ज़रा, बोले लाल गुलाल, जीवन शुभ है मैं शक्ति हूँ, मैं प्राण हूँ,  मैं आरम्भ हूँ, मैं अंत हूँ ! पीला बोला, ज्ञान सर्वोपरि है  मैं स्वर्ण हूँ, मैं शुद्ध हूँ,  मैं ज्ञान हूँ, मैं बुद्धि हूँ ! मुस्कुराया हरा, बोल पड़ा मैं ख़ुशी हूँ, मैं आनंद हूँ, मैं समृद्धि हूँ, मैं प्रकृति हूँ ! नीले ने मानो इशारा किया  मैं शांति हूँ, मैं सुकून हूँ, मैं अनंत हूँ, मैं शाश्वत हूँ ! नारंगी चुप न रह सका, बोला  मैं सूर्य हूँ, मैं शौर्य हूँ, मैं अटल हूँ, मैं अचल हूँ ! जामुनी ने नाचते-नाचते कहा मैं ख़्वाब हूँ, मैं कल हूँ, मैं करुणा हूँ, मैं प्रेरणा हूँ ! भगवा एक पहेली सबसे पूँछ पड़ा   बूझो, सफ़ेद पर चढ़ गए सारे रंग तो काला बना या फिर काले से उड़ गए सारे रंग तो श्वेत बचा? बोलै ओ रे कबीरा,  सफ़ेद और काले के बीच जीवन है रंगीन बड़ा, मौसम में आज रंगों का मेला सजा,  होली है, झूम ले रंगों के संग ज़रा होली है, बुरा नहीं मानेगा कोई रंग  होली...

सच्ची दौलत - Real Wealth - Hindi Poetry - Re Kabira 105

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-- o Re Kabira 105 o -- सच्ची दौलत भाग रहे हो तुम जहाँ की दौलत बटोरने, जो अपना नहीं उसे किसी तरह खचोटने, स्थिर नहीं रहता दिमाग शांत नहीं रहता मन,  रातों को नींद नहीं आती रहते दिन भर बेचैन,  कैसे नज़र-अंदाज़ होती देखो असली दौलत, सुनो! लुटा रहे हो, मिटा रहे हो सच्ची संपत्ति. पता नहीं अक्सर नाश्ता करना क्यों भूल जाते? घर का खाना फिकता क्यों ठंडे सैंडविच खाते? बच्चॉ को बड़ा होते बस सोते-सोते ही देख पाते? पत्नी के साथ शामों को पुराने शिकवों में गवाते? अपने लिए समय को ढेर में सबसे नीचे दबाते? सेहत को पीछे छोड़ खुद को दिन रात भगाते? भूलते उनको तुम्हारा रोज़ इंतज़ार करते  जो,  पीछे छूट जाते वो जिनके लिए गोते खाते हो, सुबह अँगड़ाई ले अपने लिए थोड़ा समय निकालो,  भाग्यशाली हो सेहतमंत हो जोतो दिल सींचो मनको,  दो बातें करो प्यार से देखो जो चौखट पर खड़ा हो,  जो अपने उन्हें पहचानो जो अपना उसे सम्भालो, भूख लगेगी, नींद आएगी, प्यार करोगे और पाओगे, मुस्कराओगे! खुशियाँ फैलाओगे सच्ची दौलत संजोते जाओगे...   'ओ रे कबीरा' सच्ची दौलत संजोते जाओगे !!! आशुतोष झुड़ेले Ashuto...

चौराहा - Midlife Crisis - Hindi Poetry - Re Kabira 104

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-- o Re Kabira 104 o --  चौराहा उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, कभी लगे बस बहुत हुआ, कभी आँखों में चुभे कमिया,  पर होठों से हमेशा निकले 'सब बढ़िया !' उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, चिंतित करे माता पिता का बुढ़ापा, साथ ही बेचैन करे बच्चों का बलवा,  पर करना है मुस्कुराने का दिखावा. उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, कभी कभी काम लगे बोझा, और रस्म-ओ-रिवाज ओछा,  है सोच पर फ़ायदे-नुक्सान का पोंछा.  उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, जब हर शिकायत बने उलझन, रोज़ बहसें होती और बातें कम, यूँ हरदम व्याकुल रहता मन. उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ,  शौक-समय का बनता नहीं संतुलन, सपनों से मानो उड़ गये पसंदीदा रंग,  रहता उधेड़-बुन में दिल-दिमाग-मन.   उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, जब दिल बोलता चल ढूंढ़ बचपन,  दिमाग इशारा करे भुला नहीं लड़कपन,  पर क्या कर सकता हूँ अकड़े है बदन. उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, सोचता बहुत हो गया भाड़ में जाये सब,  करूँगा जो दिल चाहे अभी नहीं तो कब,  फिर नींद खुलती, लगता दिहाड़ी पर तब. उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ , जैसे हज़ार टुकड़ो में बटा पड़ा हूँ,...

ये मेरे दोस्त - My Friends - Re Kabira 103

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  -- o Re Kabira 103 o --  ये मेरे दोस्त  ये पुराने दोस्त वो सयाने दोस्त हैं बड़े कमाल ये मेरे दोस्त यादों में बसे, क़िस्सों से जुड़े,  गुनगुनाते मुस्कुराते जहाँ चले झूमते चलें  ये दीवाने दोस्त वो मस्ताने दोस्त  हैं परवाने ये मेरे दोस्त  दूर हैं, पर लगते साथ हैं खड़े,  मधुमक्खियों की तरह घेर मुझे चलें  ये बेमिसाल दोस्त वो बेफ़िक्र दोस्त  हैं बेबाक ये मेरे दोस्त जमाने से लड़ें, किसी की न सुने,  हाथ में हाथ डाल गलियारों में चलें ये कामयाब दोस्त  वो मशहूर दोस्त हैं दूर तक मा'रूफ़ ये मेरे दोस्त ऊँचे पायदानों पे चढ़ें, आसमान में उड़े,  जब हमारे साथ चले ज़मीन पर ये चले...

क्यों न? - Why Not? - Re Kabira 102

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-- o Re Kabira 102 o -- क्यों न ? क्यों न ?  क्यों न ख़ुद को ढूंढ लिया जाए? इससे पहले वो कहीं गुम हो जाए, कहाँ अकेले गुम होते जा रहे हो, किधर धुंध में खोते जा रहे हो,  चलते-चलते ख़ुद  को  ही न भूल जाओ, भागते-भागते आप को न पीछे छोड़ जाओ, क्यों बीती बातों से इतना परेशान हो? क्यों अपने आप से इतना नाराज़ हो? क्यों न ख़ुद को पहचान लिया जाए? इससे पहले वो कोई अनजान हो जाए, कहाँ कोई तुम्हे समझ पायेगा, कोई और तुम्हे क्या बतलाएगा, तरह-तरह के भेष न बदलते जाओ, जगह-जगह अकेले न भटकते रह जाओ, क्यों दुसरे के नज़रिये को अपनाते हो? क्यों अपने आप पर इतने कठोर हो जाते हो? क्यों न खुद को माफ़ कर दिया जाए? इससे पहले वो सोच का कैदी बन जाए, कुछ गलितयाँ तो करोगे नहीं खुदा हो, कोई कहाँ मिलेगा जो अमोघ-अभ्रान्त हो, धीरे-धीरे ही सही ग़लतियों से सीखते जाओ, बार-बार ही सही सुधार आगे बढ़ते जाओ, क्यों रुकावटों  से  ग़लतियों से हारे लगते हों? क्यों अपने आप को सज़ा देने उतारू दिखते हो? क्यों न ख़ुद से समझौता कर लिया जाए? इससे पहले वो बड़ा मसला बन जाए, कहाँ औरों के सामने रोना रोते हो, कोई हँसाए...

लिखते रहो Keep Writing - Re Kabira 101

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-- o Re Kabira 101 o-- लिखते रहो लिखते रहो, शब्द शक्तिशाली हैं  तो अजब मायावी भी हैं  शब्दों में ध्यान  की  ताक़त है तो ज्ञान  की  चाहत भी है  लिखते रहो, शब्द प्रहार कर देते हैं  तो वहीं मरहम् भी देते हैं शब्दों में मन की खटास है तो दिल की मिठास भी है लिखते रहो, शब्द मसले बन जाते हैं तो ये मसलों को हल भी कर जाते हैं  शब्दों से दीवारें खड़ी हो जातीं हैं तो पहाड़ मिट्टी में भी मिल जाते हैं लिखते रहो, शब्द लोगों को जगा सकते हैं तो आसानी से बँटवाते भी है शब्दों में बहकाने की, भड़काने की फ़ितरत है  तो मोहब्बत फैलाने की आदत भी है लिखते रहो, शब्द तुम्हें बाँध देते हैं तो बन्धनों से मुक्त भी करते हैं शब्दों से ही गीत है प्रीत है मीत है तो भक्ति की शक्ति भी है लिखते रहो, शब्द ही अल्लाह और राम हैं तो रावण और शैतान भी हैं  शब्दों में राम है श्याम है तो सियाराम राधेश्याम भी है लिखते रहो, शब्द बेज़ुबान की जान हैं तो इनके बिना ज़ुबानी बेजान हैं शब्दों में ही तो बड़े-बड़े गुमनाम हैं तो ये कितनों की पहचान भी हैं  लिखते रहो, शब्द ही तुम्हारे व्...

बुलन्द दरवाज़ा - Re Kabira 100

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-- o Re Kabira 100 o-- बुलन्द दरवाज़ा  हमारी यादों को जो फिर ताज़ा कर दे, हमारी कहानियों में वापस जान डाल दे, देख जिसे ज़माना रुके और लोग कहें, यादगार हो तो ऐसी, निशानी हमारी बे-जोड़, बे-मिसाल होना चाहिए।  हमारे सपनो जैसी रंगों से भरी, हमारे इरादों जैसी ज़िद सी खड़ी, देख जिसे उम्मीद बंधे और लोग कहें  यादगार हो तो ऐसी, छाप हमारी एक मिसाल होना चाहिए।  हमारे बढ़ते कदमो जैसी अग्रसर, हमारे फैलते पँखों जैसी निरंतर, गुज़रने वाले गर्व करें और लोग कहें, यादगार हो तो ऐसी, मुहर हमारी बस कमाल होना चाहिए।  हमारे बिताये चार सालों का मान धरे, हमारी उपलब्धियों की एक पहचान बने,  योगदान प्रेरित करे और लोग कहें, यादगार हो तो ऐसी, जीत का प्रतीक शानदार होना चाहिए।  हमारे २५ साल के सफ़र सी अनुपम,  हमारी यारी-दोस्ती की तरह शाश्वत, जब हम मिलें जश्न मने और हम कहें, यादगार हो तो ऐसी, आरंभ का द्वार बुलन्द होना चाहिए।  हमारी निशानी, हमारी छाप,  हमारी मुहर, हमारी जीत का प्रतीक,  हमारे आरंभ का द्वार बुलन्द होना चाहिए ! बुलन्द होना चाहिए ! आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhur...

कहाँ है पवन? - Re Kabira 099

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  -- o Re Kabira 099 o-- कहाँ है पवन? दिन दिन गिन रहे हम ३० दिन, १ महीना हो गया घर परिवार को खबर नहीं दोस्तों को ज़रा अंदाज़ा नहीं दफ़्तर से कुछ पता चला नहीं  पुलिस को कुछ भी मिला नहीं  हे प्रभु ! हे देवी ! कैसे पता चले कहाँ है पवन? न अख़बार न इंटरनेट ढूँढ सकी  न पुलिस न प्रशाशन ढूँढ रही  पत्नी बच्चे माता पिता बहन परेशान  दोस्त यार मित्र परिजन हैं हैरान  कोई तो बताओ? कोई तो सुझाओ? कहाँ ढूँढे? कैसे ढूँढे हम पवन? हे प्रभु ! हे देवी ! राह दिखाओ कहाँ है पवन? थक गए हैं पर हारे नहीं है  घबराये हुए हैं पर कमज़ोर नहीं  व्याकुल हैं पर मायूस बिल्कुल नहीं  डटे रहेंगे जब तक पता चले नहीं  कोई तो बताएगा कोई तो मिलवाएगा  जहाँ भी हो ढूँढ ही लेंगे तुम्हे पवन  हे प्रभु ! हे देवी ! ले चलो जहाँ भी है पवन? #search4pawan आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira -- o Re Kabira 099 o--

पल - Moment - Hindi Poetry - Re Kabira 098

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-- o Re Kabira 098 o-- पल Moment पल पल पल पल पल कल पल अगल पल पल कल कल पल कल पल पिछल पल पल पल पल पल चल पल अचल पल पल चल चल पल चल पल अटल पल पल पल पल पल तल पल जबल पल पल तल तल पल तल पल सुतल पल पल पल पल पल भल पल जटल पल पल बल बल पल बल पल प्रबल पल पल पल पल पल छल पल उटल पल पल फल फल पल फल पल सफल पल पल पल पल पल कल कल पल पल पल पल पल पल चल चल पल —०— भूत और भविष्य की चिंता व्यर्थ है, जो है, आज और अब है  समय चलता रहेगा, समय बढ़ता रहेगा  कभी अटल, कभी कठोर, कभी अचल, कभी स्थिर प्रतीत होगा  कभी हिमालय से ऊँचा, कभी सागर से भी गहरा महसूस होगा  कभी बहुत ही कठिन, कभी बहुत बलवान, कभी कुचलने वाला लगेगा कभी छलावा करेगा, कभी बेचैन करेगा, तो कभी सुकून देगा भूत और भविष्य में लुप्त न होना,  आज और अब को मत खोना  समय चलता रहेगा, समय बढ़ता रहेगा —०— don't ponder too much on the past and future live the present moment moments keep passing and still appear fixed and firm moments can appear as tall as mountains and as deep as oceans some moments can appear complicated, and overwh...

चलो पवन को ढूँढ़ते हैं - Re Kabira 097

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-- o Re Kabira 097 o-- #search4pawan चलो पवन को ढूँढ़ते हैं, चलो अपने दोस्त का पता लगाते हैं,  कल तो वो यहीं था,  चार दिन पहले ही तो बात हुई, थोड़ा समय हुआ मुलाकात हुई, आज ऎसी क्या बात हो गई? अचानक पता चला, अख़बारों में भी ख़बर छपी, फ़ोन बजे सन्देश पढ़े, लतापा है गुमशुदा है, यहाँ देखो वहाँ पूछो, किसी को तो इसका पता हो? सब हैरान, सब परेशान, ऐसे कैसे बिना बताये चला गया वो, कभी गलत कदम नहीं उठा सकता जो, जहाँ मिले थोड़ा सुकून वहीँ, है यकीन कि है वो यहीं कहीं, किसी को कोई शक संदेह तो नहीं? अफ़वाहें उड़ी अटकलें लगी, अनुमान लगे धारणाएँ बनी, ख्याल बुने विचार घड़े, कुछ सच्ची अधिक्तर झूठी बातें पता चलीं, कुछ वाद हुए अधिक्तर विवाद बने, कुछ आगे बड़े अधिक्तर अभी भी क्यों पीछे खड़े? लड़ रहा है वो अपने हिस्से की लड़ाई, कभी छुपाई कभी मुस्कुराते हुए बताई, अन्वेषण अन्वीक्षण विवेचन आलोचन जाँच-पड़ताल, ये सब तो हो रहा है और होता रहेगा, जो हमारे वश में है चलो वो करते हैं य फिर हाथ पर हाथ धरे बैठे रह सकते हैं? बोले ओ रे कबीरा, वो तो अभी गुमशुदा है, तुम  सब   अब तक  थे...

रखो सोच किसान जैसी - Re Kabira 096

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-- o Re Kabira 096 o-- आचार्य रजनीष "ओशो" के प्रवचन से प्रेरित कविता रखो सोच किसान जैसी ! मेहनत से जोते प्यार से सींचे अड़चने पीछे छोड़े  उखाड़ फैंके खरपतवार दिखती जो दुश्मनों जैसी  खाद दे दवा दे दुआ दे दुलार दे रह खुद भूखे प्यासे  दिन रात पहरा दे ध्यान रखे मानो हो बच्चों जैसी  रखो सोच किसान जैसी ! कभी न कोसे न दोष दे अगर पौध न बड़े जल्दी  भूले भी न चिल्लाए पौधो पर चाहे हो फसल जैसी  न उखाड़ फेंके पौध जब तक उपज न हो पक्की  चुने सही फसल माटी-मौसम के मन को भाए जैसी  रखो सोच किसान जैसी ! पूजे धरती नाचे गाये उत्सव मनाए तब हो बुआई  दे आभार फिर झूमे मेला सजाये कटाई हो जैसी बेचे आधी, बोए पौनी, थोड़ी बाँटे तो थोड़ी बचाए अपने पौने से चुकाए कर्ज़े की रकम पर्वत जैसी  रखो सोच किसान जैसी ! प्रवृत्ति है शांत पर घबराते रजवाड़े नेता व शैतान कभी अच्छी हो तो कभी बुरी सही कमाई हो जैसी न कोई छुट्टी न कोई बहाना न कुछ बने मजबूरी  सदा रहती अगली फसल की तैयारी पहले जैसी ओ रे कबीरा,   रखो  सोच किसान जैसी ! रखो सोच किसान जैसी ! आशुतोष झुड़े...

शौक़ नहीं दोस्तों - Re Kabira 095

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-- o Re Kabira 095 o--   शौक़ नहीं दोस्तों वहाँ जाने का है मुझे शौक़ नहीं दोस्तों जहाँ ज़िस्म तो है सजे रूह नहीं दोस्तों कुछ सुनना है कुछ सुनाना भी दोस्तों जो कह न सकें गले लगाना भी दोस्तों तस्वीरों में सब ज़ख़्म छुपाते हैं दोस्तों अरसा हुआ मिले दर्द बताना है दोस्तों  ख़ुशियाँ अधूरी हैं जो बाँटी नहीं दोस्तों महफ़िलें बेगानी हैं जो तुम नहीं दोस्तों हमारी यादें हैं जो बारबार हँसाती दोस्तों मुलाक़ातें ही हैं जो क़िस्से बनाती दोस्तों वक़्त लगता थम गया था जो तब दोस्तों धुँधली यादों के पल जीना वो अब दोस्तों गलियारों में गूँजे अफ़साने हमारे दोस्तों दरवाज़ों पे भी हैं गुदे नाम तुम्हारे दोस्तों गले में हाथ डाल बेख़बर घूमना दोस्तों बेफ़िक्र टूटी चप्पल में चले आना दोस्तों गुनगुनाना धुने जो कभी भूली नहीं दोस्तों झूमें गानों पर जो फिर ले चले वहीं दोस्तों कुछ रास्ते है जहाँ बेहोशी में भी न गुमे दोस्तों कुछ गलियाँ हैं वहाँ हमारे निशाँ छुपे दोस्तों लोग कहते हैं फ़िज़ूल वक़्त गवाया दोस्तों कौन समझाए क्या कमाया है मैंने दोस्तों कल हो न हो आज तो मेरे है पास दोस्तों कोई हो न हो तुम मिलोगे है...